अष्टमी का आधा चाँद
शुक्ल पक्षा अष्टमी है
चाँद आधा सो रहा है
बादलों का श्वेत हाथी
नील नदिया खो रहा है।
तारकों के भूषणों से
रात ने आँचल सँवारा
रौम्य तारों की कढ़ाई
रूप दिखता है कँवारा
कौन बैठा ओढ़नी में
रत्न अनुपम पो रहा है।
रैन भीगी जा रही है
मोतियों की माल बिखरी
नीर बरसा ओस बनकर
पादपों की शाख निखरी
हाथ सुथराई सहेजे
पात अपने धो रहा है।।
झूलना बिन डोर डाला
उर्मियों को गोद लेकर
वात की है श्वास भीनी
दौड़ती है मोद लेकर
सिंधु अपने आँगने में
नेह भर-भर बो रहा है।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
मनोहारी चित्रण !
ReplyDeleteबहुत प्यारी रचना।
ReplyDeleteआंनद से भर देने वाली।
नई पोस्ट- CYCLAMEN COUM : ख़ूबसूरती की बला
हृदय से आभार आपका।
Deleteसादर।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 13 फरवरी 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
हृदय से आभार आपका।
Deleteमैं मंच पर उपस्थित रहूंगी। सादर।
Bahut hi Sundar Rachna
ReplyDeleteउत्साहवर्धन के लिए हृदय से आभार।
Deleteसादर।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (१३-०२ -२०२२ ) को
'देखो! प्रेम मरा नहीं है'(चर्चा अंक-४३४०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हृदय से आभार आपका चर्चा में उपस्थित रहूंगी।
Deleteसादर सस्नेह।
वाह! अति सुंदर सृजन😍💓
ReplyDeleteमन को मुग्ध कर लिया!
Deleteवाकई बहुत ही खूबसूरत चित्रण
हृदय से आभार प्रिय मनीषा ।
Deleteउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए।
अष्टमी की चाँद!!!
ReplyDeleteबहुत ही मनभावन एवं लाजवाब शब्दचित्रण
वाह!!!
तारकों के भूषणों से
रात ने आँचल सँवारा
रौम्य तारों की कढ़ाई
रूप दिखता है कँवारा
कौन बैठा ओढ़नी में
रत्न अनुपम पो रहा है।
हृदय से आभार आपका सुधा जी आपकी मोहक प्रतिक्रिया सदा मेरे लेखन को संबल देती है।
Deleteसस्नेह।
वाह , रात का क्या खूब नज़ारा पेश किया है । बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteआपको पसंद आई हृदय से आभार आपका।
Deleteसादर सस्नेह।
रैन भीगी जा रही है
ReplyDeleteमोतियों की माल बिखरी
नीर बरसा ओस बनकर
पादपों की शाख निखरी
हाथ सुथराई सहेजे
पात अपने धो रहा है।
अत्यंत सुंदर । मन्त्रमुग्ध करती अनुपम कृति ।
सुंदर उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार आपका मीना जी सदा स्नेह बनाए रखें।
Deleteसस्नेह।
अत्यन्त सुन्दर मनमोहक रचना।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका उर्मि दी।
Deleteसादर।
आदरणीया, बहुत सुंदर रचना! सुंदर शब्दों से सुसज्जित, छंद बद्ध रचना!
ReplyDeleteरैन भीगी जा रही है
मोतियों की माल बिखरी
नीर बरसा ओस बनकर
पादपों की शाख निखरी
हाथ सुथराई सहेजे
पात अपने धो रहा है।। साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया से मैं अभिभूत हूं आदरणीय।
Deleteसादर आभार आपका।
बेहद सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका भारती जी उत्साह वर्धन हुआ।
Deleteसादर सस्नेह।
बहुत सुंदर रचना,
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका मधुलिका जी , ब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।
Deleteसादर सस्नेह।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteअति मनमोहक सृजन दी।
ReplyDeleteमौन प्रकृति की झंकार आपकी लेखनी से निसृत होती है।
सप्रेम
प्रणाम दी
सादर।
सस्नेह आभार आपका प्रिय श्वेता,आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसस्नेह।
झूलना बिन डोर डाला
ReplyDeleteउर्मियों को गोद लेकर
वात की है श्वास भीनी
दौड़ती है मोद लेकर
सिंधु अपने आँगने में
नेह भर-भर बो रहा है।
बहुत सुंदर मनोहारी चित्रण ।
हृदय से आभार आपका जिज्ञासा जी आपकी मोहक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
Deleteसस्नेह।
हृदय से आभार आपका संगीता जी आप की प्रस्तुति सदा अभिनव होती है , मैं उपस्थित रहूंगी।
ReplyDeleteसादर सस्नेह।
हृदय से आभार आपका आलोक जी।
ReplyDeleteसादर।
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