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Tuesday, 8 February 2022

अप्रतिम सौंदर्य


 अप्रतिम सौन्दर्य 


हिम  से आच्छादित 

अनुपम पर्वत श्रृंखलाएँ

मानो स्फटिक रेशम हो बिखर गया

उस पर ओझल होते 

भानु की श्वेत स्वर्णिम रश्मियाँ 

जैसे आई हो शृंगार करने उनका 

कुहासे से ढकी उतंग चोटियाँ 

मानो घूँघट में छुपाती निज को

धुएँ सी उडती धुँध

ज्यों देव पाकशाला में

पकते पकवानों की वाष्प गंध

उजालों को आलिंगन में लेती

सुरमई सी तैरती मिहिकाएँ 

पेड़ों पर छिटके हिम-कण

मानो हीरण्य कणिकाएँ बिखरी पड़ी हों

मैदानों तक पसरी बर्फ़ जैसे

किसी धवल परी ने आँचल फैलया हो

पर्वत से निकली कृश जल धाराएँ

मानो अनुभवी वृद्ध के

बालों की विभाजन रेखा

चीड़,देवदार,अखरोट,सफेदा,चिनार 

चारों ओर बिखरे उतंग विशाल सुरम्य 

कुछ सर्द की पीड़ा से उजड़े 

कुछ आज भी तन के खड़े 

आसमान को चुनौती देते

कल-कल के मद्धम स्वर में बहती नदियाँ 

उनसे झाँकते छोटे बड़े शिला खंड 

उन पर बिछा कोमल हिम आसन

ज्यों ऋषियों को निमंत्रण देता साधना को

प्रकृति ने कितना रूप दिया  कश्मीर  को

हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम

शब्दों  में वर्णन असंभव।

"गिरा अन्य नयन बिनु बानी"


              कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


   " गिरा अनयन नयन बिनु बानी "

22 comments:

  1. Replies
    1. हृदय से आभार आपका।
      सादर।

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.02.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4337 में दिया जाएगा| इस चर्चा मंच ब्लॉग पर जरूर पहुँचेंगे, ऐसी आशा है|
    धन्यवाद
    दिलबाग

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    Replies
    1. जी आत्मीय आभार आपका पाँचलिकों पर आना सदा आनंदित करता है।
      मैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
      सादर।

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  3. प्रकृति ने कितना रूप दिया कश्मीर को
    हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम
    शब्दों में वर्णन असम्भव।
    कश्मीर का सजीव सौंदर्य यत्र तत्र सर्वत्र मोती सदृश बिखरा पड़ा है आपकी रचना में । प्राकृतिक सुषमा का रूप दिल के बहुत करीब लगा ।

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    1. हृदय से आभार आपका मीना जी आपने सही अनुमान लगाया ये रचना 2016फरवरी 16की है जब हम लोग गुलमर्ग से श्रीनगर जा रहे थे ,वैसे भी काश्मीर का सौंदर्य सिर चढ़कर बोल रहा था खूमारी की तरह ,दूसरी ओर चारों तरफ बिखरा सौंदर्य ,हिम आक्षादित पर्वत श्रृंखलाएं स्नोफॉल
      सब-कुछ परिलोक सा दृश्य उत्पन्न कर रहा था ।
      मुझे लेखन शुरू किये पाँच छः महीने ही हुए होंगे लेखन स्वातं सुखार था परिपक्वता का नितांत अभाव बस भाव संप्रेषण तक सीमित।
      पर अचानक मोबाइल पर ही उस सौंदर्य को हूबहू लिखने लगी उपमाएं जैसे स्वत:ही कलम से निसृत हो रही थी,
      दूर पर्वतों से कोहरे के उड़ते बादल तो कहीं ओट से झांकते सूर्य देव कहीं कृश जलधार लिए पहाड़ी नदियां जो बर्फ़ से आधी जमीं हुई शिला खंडों पर बिछे बर्फ़ के आसन यानि सबकुछ सामने दिख रहा था और मोबाइल पर टाइप हो रहा था ,सच कहूं समय कैसे बिता पता नहीं श्रीनगर के पहुंचने से पहले बस इतना ही लिख पाई ।
      और ये परिणाम सामने आया जो स्वयं मेरे लिए विस्मय था अतुलनीय आनंद देने वाला ।
      ये रचना सचमुच मुझे हर समय की सबसे प्यारी रचना लगती है अपनी और आपके शब्द सौ प्रतिशत सही "प्राकृतिक सुषमा का रूप दिल के बहुत करीब लगा ।"
      जी सचमुच बहुत ही करीब।
      सस्नेह आभार ,बहुत कुछ लिख दिया।😍

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  4. बहुत बहुत सुन्दर

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    1. हृदय से आभार आपका आदरणीय।
      सादर।

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  5. वाह!बहुत ही सुंदर प्रकृति चित्रण।
    सादर

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    1. स्नेह आभार आपका प्रिय अनिता।
      सस्नेह।

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  6. कश्मीर के सौंदर्य को कितने सुंदर शब्दों और अनुपम उपमाओं के द्वारा चित्रित किया है आपकी लेखनी ने,

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    1. उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई बहुत बहुत आभार आपका।
      सस्नेह।

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  7. बहुत ही खूबसूरत रचना।

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    1. जी हृदय से आभार आपका।
      उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया आपकी रचना को मुखर करती सी।

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  8. कुछ सर्द की पीड़ा से उजड़े

    कुछ आज भी तन के खड़े -यही जीवन है

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    Replies
    1. जी हृदय से आभार आपका।
      मोहक प्रतिक्रिया।
      सादर।

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  9. प्राकृति को बाखूबी बाँधा है आपने ... लाजवाब ...

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    1. जी हृदय से आभार आपका।
      उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए।
      सादर।

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  10. कश्मीर की अलौकिक छटा का बहुत ही सुंदर और सार्थक वर्णन ।

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    1. हृदय से आभार आपका जिज्ञासा जी, लेखन में नव ऊर्जा भरती सुंदर प्रतिक्रिया के लिए।
      सस्नेह।

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  11. धुएँ सी उडती धुँध
    ज्यों देव पाकशाला में
    पकते पकवानों की वाष्प गंध

    वाह!!!

    चारों ओर बिखरे उतंग विशाल सुरम्य
    कुछ सर्द की पीड़ा से उजड़े
    कुछ आज भी तन के खड़े
    आसमान को चुनौती देते

    कश्मीर की प्राकृतिक सुषमा का बहुत ही मनमोहक शब्दचित्रण
    बहुत ही लाजवाब।

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    1. आपकी स्नेहिल सुरम्य प्रतिक्रिया सदा मन में उमंग भर देती है कुछ और अच्छा करने के लिए हृदय से आभार आपका सुधा जी।
      सस्नेह।

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