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Tuesday, 5 February 2019

एकलव्य की मनोव्यथा

एकलव्य की मनो व्यथा >

तुम मेर द्रोणाचार्य थे
मैं तुम्हारा एकलव्य ,
मैं तो मौन गुप्त साधना में था ,
तुम्हें कुछ पता भी न था
फिर इतनी बङी दक्षिणा
क्यों मांग बैठे ,
सिर्फ अर्जुन का प्यार और
 अपने वचन की चिंता थी ?
या अभिमान था तुम्हारा,
सोचा भी नही कि सर्वस्व
 दे के जी भी पाऊंगा ?
इससे अच्छा प्राण
मांगे होते सहर्ष दे देता
और जीवित भी रहता
फिर मांगो गुरुदक्षिणा
मैं दूंगा पर ,सोच लेना
अपनी मर्यादा फिर न
भुलाना वर्ना धरा डोल जायेगी ,
मैं फिर भेट करूंगा अंगूठाअपना,
और कह दूंगा सारे जग को
तुम मेरे आचार्य नही
सिर्फ द्रोण हो सिर्फ एक दर्प,
 पर मैं आज भी हूं
तुम्हारा एकलव्य ।

             कुसुम कोठारी ।

14 comments:

  1. वाह अद्भुत सुंदर रचना आदरणीया दीदी जी

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    1. बहुत सा स्नेह आभार आंचल आपको।

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  2. अहं से बढ़कर आत्मसम्मान का मान
    द्रोणाचार्य सम गुरु नहीं न एकलव्य सम आन

    गुरु शिष्य परंपरा का वह अध्याय भूलना आसान नहीं।
    हमेशा की भाँति सारगर्भित रचना दी..👌

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    1. सस्नेह आभार श्वेता ¡
      कौन सा मान था नही कह सकती काश गीता का उपदेश कृष्ण पहले सुना देते द्रोणाचार्य और एकलव्य दोनो को तो दोनो अपना कर्तव्य निश्चित कर लेते ।

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  3. एकलव्य की मनोव्यथा को बहुत ही सुंदर ढंग से व्यक्त किया हैं आपने, कुसुम दी।

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    1. ढेर सा आभार ज्योति बहन आपकी सार्थक प्रतिक्रिया से रचना को उर्जा मिली।
      सस्नेह ।

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  4. बहुत सुन्दर सृजन आदरणीया
    सादर

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    1. सस्नेह आभार सखी आपकी प्रतिक्रिया सदा उत्साह बढाती है।
      g+ बंद हो रहा है प्राय सभी ब्लॉग परिवार फेसबुक पर दिखने लगा आप भी अपना फेसबुक अकाउंट नही हो तो बना लेवें।

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  5. बहुत खूब.....तीक्ष्ण व्यंग
    सुंदर रचना आदरणीया

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    1. सादर आभार रविंद्र जी सिर्फ व्यंग नही यह व्यथा है।

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  6. बहुत खूब.....तीक्ष्ण व्यंग
    सुंदर रचना आदरणीया

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  7. सादर आभार सखी ये मेरे लिये सम्माननीय हैं।
    ढेर सा स्नेह आभार ।

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  8. बहुत ही बेहतरीन रचना सखी 👌

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    1. बहुत सा आभार सखी ।
      सस्नेह ।

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