अवसाद मां सीता का
मां सीता का मौन विलाप जब
उन्हें लक्ष्मण जी वन में छोड़ आये।
अवसाद में घिरा था मन
कराह रहे वेदना के स्वर
कैसी काली छाया पड़ी
जीवन पर्यन्त जो आदर्श
थे संजोये फूलों से चुन चुन
पल में सब हुवे छिन्न भिन्न
हा नियति कैसा लिये बैठी
अपने आंचल में ये सर्प दंस
क्या ये मेरे हिस्से आना था
अहो दसो दिशाओं क्यों हो मौन
तुम ही कुछ बोलो
क्या थी आखिर मेरी भूल
एक निश्छल प्रतिकार गूंज उठा
प्रकृति भी सूनी आंखों से रो पड़ी
पर कोई साथ नही,
तीन भुवन के नाथ की मैं भार्या
आज छत विहीन ,अरण्य में अकेली
कोख में विलसते कमल
खिलने से पहले अनाथ
हा मुझ से हत भागी
और कौन इस अवनि पर।
कुसुम कोठारी।
मां सीता का मौन विलाप जब
उन्हें लक्ष्मण जी वन में छोड़ आये।
अवसाद में घिरा था मन
कराह रहे वेदना के स्वर
कैसी काली छाया पड़ी
जीवन पर्यन्त जो आदर्श
थे संजोये फूलों से चुन चुन
पल में सब हुवे छिन्न भिन्न
हा नियति कैसा लिये बैठी
अपने आंचल में ये सर्प दंस
क्या ये मेरे हिस्से आना था
अहो दसो दिशाओं क्यों हो मौन
तुम ही कुछ बोलो
क्या थी आखिर मेरी भूल
एक निश्छल प्रतिकार गूंज उठा
प्रकृति भी सूनी आंखों से रो पड़ी
पर कोई साथ नही,
तीन भुवन के नाथ की मैं भार्या
आज छत विहीन ,अरण्य में अकेली
कोख में विलसते कमल
खिलने से पहले अनाथ
हा मुझ से हत भागी
और कौन इस अवनि पर।
कुसुम कोठारी।
तीन भुवन के नाथ की मैं भार्या
ReplyDeleteआज छत विहीन ,अरण्य में अकेली
कोख में विलसते कमल
खिलने से पहले अनाथ
बहुत सुंदर रचना 👌👌
सखी आपकी प्रतिक्रिया सदा उत्साह बढाती है।
Deleteढेर सा आभार ।
बिल्कुल सही प्रश्न किया आपने दी।
ReplyDeleteइसी विषय पर मेरा अकसर बहस होता रहा है कि तब प्रजा(जनता) क्यों मौन थी। उसने अपने राजा से यह कहा क्यों नहीं कि सीता निर्दोष है, सिंहासन पर बैठा व्यक्ति इस तरह से कोई निर्णय नहीं ले सकता है, वह सामुहिक फैसला लेगा। आज भी यही हो रहा है, जब भी कर्मपथ पर चलने वाला कोई व्यक्ति षड़यंत्र का शिकार होता है, जनता मौन रहती है।
एक मिसाल दूं अपना ,जब पत्रकारिता में आया था तो जुआं और हेरोइन (मादक द्रव्य) पर भरपूर समाचार लिखता था। प्रलोभन में मोटर साइकिल और प्रतिमाह सुविधा शुल्क देने की बात कही गयी, परंतु ईमानदारी का चस्का लगा था मुझे। जब सौदा नहीं पटा तो खाकी और खादी पहनने वालों ने मुकदमें में फंसा दिया।
जनता का सहयोग तो दूर संस्थान ने भी कह दिया कि क्यों दर्द मोल लेते हो।
शुक्रिया शशि भाई आपकी प्रबुद्ध प्रतिक्रिया का सदा इंतजार रहता है। आपने सही कहा प्रजातंत्र में अत्याचार के विरुद्ध प्रजा का मौन प्रजातंत्र के मायने ही बदल देता है और निरअपराध और ईमानदार व्यक्ति बेमतलब कष्ट उठाता है। आपकी व्याख्यात्मक प्रतिक्रिया के लिये ढेर सा आभार।
Deleteसस्नेह।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२८ जनवरी २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आभार श्वेता मै अवश्य आऊंगी देर सबेर ।
Deleteबहुत खूब...... कुसुम जी ,सीता माँ के दर्द को बखूबी अपने शब्दों का रूप दिया है सादर स्नेह
ReplyDeleteआपको पसंद आई कामिनी जी सच लिखना सार्थक हुवा ।
Deleteसस्नेह आभार बहुत सा।
तीन भुवन के नाथ की मैं भार्या
ReplyDeleteआज छत विहीन ,अरण्य में अकेली
कोख में विलसते कमल
खिलने से पहले अनाथ
हा मुझ से हत भागी
और कौन इस अवनि पर।
गहन अवसाद से भरी माँ सीता की अवसाद भरी जिन्दगी.... बहुत ही लाजवाब रचना।
आपकी प्रतिक्रिया से रचना को सार्थकता मिली सुधा जी ।
Deleteसस्नेह आभार ।
अवसाद में घिरा था मन
ReplyDeleteकराह रहे वेदना के स्वर
कैसी काली छाया पड़ी
जीवन पर्यन्त जो आदर्श
थे संजोये फूलों से चुन चुन
पल में सब हुवे छिन्न भिन्न
हा नियति कैसा लिये बैठी
अपने आंचल में ये सर्प दंस
क्या ये मेरे हिस्से आना था....बहुत मार्मिक और सराहनीय सृजन सखी
सादर
प्रिय कुसुम बहन -- माँ सीता को जरुर अवसाद हुआ होगा अपने प्रति इस अन्याय पर और चहेते जनतंत्र की ख़ामोशी पर रामचरित मानस में इस करुणतम प्रसंग को पढ़ते आँखें नम हो जाती हैं |एक नारी के प्रति मर्यादा पुरुषोत्तम का ये अन्याय पूर्ण न्याय इतिहास का सबसे विवादास्पद न्याय बनकर रह गया | श्री राम की कर्तव्य गत कोई भी मज़बूरी थी पर पति के रूप में उनसे हमेशा सवाल किये जायेंगे | अत्यंत भावपूर्ण मार्मिक रचना के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनायें | एक नारी मन मेंएक नारी से बेहतर कौन झांक सकता है ? सस्नेह --
Deleteबहुत बहुत आभार सखी आपकी मनभावन प्रतिक्रिया से रचना को सार्थकता मिली ।
Deleteसस्नेह ।
जी रेणू बहन शताब्दियों से ये एक अनुत्तरित प्रश्न, चुभन फांस सी गहरे पैठ गई। न जाने रचनाकारों ने भी इसे हृदय स्पर्शी ढंग से लिखा है पर कोई समाधान नही ।
ReplyDeleteसच कहूं तो ये मैने पहले अहिल्या के लिये लिखा था पर फिर पढा तो लगा सीताजी पर भी ये पूर्ण तहः बैठ रही है तो पीछे से चार पंक्तियों का विस्तार देकर इसे सीता जी को समर्पित कर दी ।
आपकी विचारोत्तेजक प्रतिक्रिया से रचना को सच मायने में सार्थकता मिली बस यूं ही स्नेह प्रेसित करते रहें ।
सस्नेह आभार बहना।
पल में सब हुवे छिन्न भिन्न
ReplyDeleteहा नियति कैसा लिये बैठी
अपने आंचल में ये सर्प दंस
क्या ये मेरे हिस्से आना था....बहुत मार्मिक