स्वभाव
तुंग श्रृंग से लहर-लहर कर
सोत पुनित कल-कल बहता।
सदियों की अविरल पौराणिक
ओजस्वी गाथा कहता।
सूर्य चन्द्र निर्विघ्न विचरते
कर्म पंथ निर्बाधित सा
भागीरथ संकल्प कठिन पर
पूर्ण हुआ श्रम साधित सा
समय बिराना कब रुकता है
मोह नींद टूटे ढहता।।
हर बादल से चपला चमके
श्याम मेघ जल भार भरे
सरस रही है धरा नवेली
बूंदों का सत्कार करे
काल चक्र बस चले अहर्निस
मौसम की घातें सहता।।
ओम नाद की शाश्वत आभा
तन मन आलोकित करती
वेदों की वो गेय ऋचाएं
ज्ञान ध्यान अंतस भरती
लौ आलौकिक दिव्य प्रकाशक
प्रेम हृदय उज्ज्वल रहता।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सुन्दर| नववर्ष शुभ हो|
ReplyDeleteहृदय तल से आभार आपका आदरणीय।
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