कुछ अशआर मु-फा-ई-लुन (1-2-2-2)×4
सुनों ये बात है सच्ची जहाँ दिन चार का मेला।
फ़कत दिन चार के खातिर यहां तरतीब का खेला।
शजर-ए-शाख पर देखो अरे उल्लू लगे दिखने।
नहीं ये रात की बातें ज़बर क़िस्मत लगे लिखने।
कदम इक ना चले साथी सफ़र-ए-जिंदगी में जब।
अगर सोचें रखा क्या है भला इस जिंदगी में अब।
किसी आहट अगर चौंको निगाहें बस उठा लेना।
खड़े हम आज तक रहबर नजर भर मुस्कुरा देना।
कभी तदबीर सोयी सी कभी आलस जगा रहता।
करें दोनों कि जब छुट्टी फिरे तकदीर मैं कहता ।
किसी भी राह गुजरेंगे मगर मंजिल वही होगी।
सभी के काफिले रहबर सफर की इन्तहां होगी।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
वाह
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका आदरणीय।
Deleteसादर।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (29-12-2022) को "वाणी का संधान" (चर्चा अंक-4630) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हृदय से आभार आपका आदरणीय।
Deleteसादर।
किसी आहट अगर चौंको निगाहें बस उठा लेना।
ReplyDeleteखड़े हम आज तक रहबर नजर भर मुस्कुरा देना।///
बहुत ही भावपूर्ण और रोचक प्रस्तुति प्रिय कुसुम बहन 👌👌👌🙏
सस्नेह आभार आपका रेणु बहन।
Deleteबहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसादर।
कभी तदबीर सोयी सी कभी आलस जगा रहता।
ReplyDeleteकरें दोनों कि जब छुट्टी फिरे तकदीर मैं कहता
वाह!!!
लाजवाब अशआर...👏👏👏🙏🙏🙏
कभी तदबीर सोयी सी कभी आलस जगा रहता।
ReplyDeleteकरें दोनों कि जब छुट्टी फिरे तकदीर मैं कहता ।
वाह सुंदर ।
हृदय से आभार आपका सुधा जी।
Deleteसस्नेह।