व्यंजना पीर जाई
पीर ही है इस जगत में
व्यंजनाओं में ढली जो
आँख से टपकी कभी वो
मन वीथिका में पली जो।।
रात के आँसू वही थे
लोक में जो ओस फैली
चाँद की भी देह सीली
व्योम की भी पाग मैली
ये हवाएँ क्यूँ सिसकती
थरथरा कर के चली जो।।
त्रास के बादल घुमड़ते
और व्यथा से घट झरा है
वेदना की दामिनी से
शूल का भाथा भरा है
नित सुलगती ताप झेले
अध जली काठी जली जो।।
भाव मणियाँ गूँथती है
मसी जब आकार लेती
तूलिका से पीर झांके
लक्षणा जब थाप देती
गूढ़ मन के गोह बैठी
भावना से है छली जो।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteपीर ही है इस जगत में
ReplyDeleteव्यंजनाओं में ढली जो
आँख से टपकी कभी वो
मन विथीका में पली जो।।
हृदय स्पर्शी सृजन कुसुम जी
बहुत दिनों बाद मैं ब्लॉग भ्रमण पर निकलीं हूं ंंआनन्द आ गया,सादर नमन आपको 🙏
सस्नेह आभार आपका कामिनी जी।
Deleteआपका ब्लॉग पर भ्रमण हमारा उत्साहवर्धन है।
सस्नेह।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 15 दिसंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 15 दिसंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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जी हृदय से आभार आपका ।
Deleteमैं पांच लिंक पर उपस्थित रहूंगी।
सादर सस्नेह।
भावपूर्ण हृदय स्पर्शी श्रेष्ठ रचना सखी, बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका सखी ब्लॉग पर आपका स्वागत है सदा।
Deleteसस्नेह।
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना सखी सादर
ReplyDeleteसस्नेह आभार आपका सखी।
Deleteवाह ! महादेवी जी की अमर रचना - 'मैं नीर भरी दुःख की बदली ---' याद आ गयी.
ReplyDeleteआपकी सराहना से मन हर्षित हुआ सर, महादेवी जी जैसा क्षणांश भी लिख पाऊं तो लेखनी धन्य होगी।
Deleteआत्मीय आभार आपका।
सादर।
बहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका।
Deleteसादर।
रात के आँसू वही थे
ReplyDeleteलोक में जो ओस फैली
चाँद की भी देह सीली
व्योम की भी पाग मैली
ये हवाएँ क्यूँ सिसकती
थरथरा कर के चली जो।।
मन मोह लिया
कलम कि जय
जय
जय हो
जी श्र्लाघ्य टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
Deleteसादर आभार आपका आदरणीय।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना मंगलवार २० दिसंबर २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
ये तो बहुत सुखद है सुधा जी मेरी रचना को पाँच लिंक पर आपके द्वारा प्रेषित करना।
Deleteसस्नेह आभार आपका।
ये हवाएँ क्यूँ सिसकती
ReplyDeleteथरथरा कर के चली जो।।
वाह!!!
अद्भुत...
हमेशा की तरह बहुत ही लाजवाब।
जी हृदय से आभार आपका सुधा जी।
Deleteसस्नेह।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना मंगलवार २० दिसंबर २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आ. कुसुम जी टिप्पणी नहीं दिख रही कृपया स्पैम देखिए न ।
ReplyDeleteजी स्पैम में थी निकाल दी सभी टिप्पणियां।
Deleteसस्नेह।
भावपूर्ण अभव्यक्ति । पीर को भी खूबसूरती से बयाँ कर दिया ।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका संगीता जी उत्साह वर्धन करती टिप्पणी आपकी।
Deleteसस्नेह।
सचमुच दी आपकी लेखनी का जादू है जिससे व्यथा को भी इतनी खूबसूरती से व्यक्त किया जा सकता है।
ReplyDeleteअत्यंत भावपूर्ण सुंदर अभिव्यक्ति।
हर बंध बेहतरीन है।
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सादर प्रणाम दी।
श्वेता आपकी स्नेहिल टिप्पणी से सृजन को नई गति मिलती है।
Deleteसस्नेह आभार हृदय से।
भाव मणियाँ गूँथती है
ReplyDeleteमसी जब आकार लेती
तूलिका से पीर झांके
लक्षणा जब थाप देती
गूढ़ मन के गोह बैठी
भावना से है छली जो।///
भावनाएँ जब छली जाती है तभी सृजन के लिए लेखनी सक्रिय होती है।जिससे कालजयी भाव प्रवाहित होते हैं।हमेशा की तरह लाजवाब रचना प्रिय कुसंग बहन 🙏❤
रेणु बहन आपकी प्रतिक्रिया सदा रचना को गौरवान्वित करती है।
Deleteहृदय से आभार आपका।
सस्नेह
रात के आँसू वही थे
ReplyDeleteलोक में जो ओस फैली
चाँद की भी देह सीली
व्योम की भी पाग मैली
ये हवाएँ क्यूँ सिसकती
थरथरा कर के चली जो।। कितने गहनता से मन के भाव भरे हैं। हृदयस्पर्शी रचना । बधाई कुसुम जी।
आपकी सराहना से लेखन सार्थक हुआ जिज्ञासा जी, हृदय तल से आभार आपका।
Deleteसस्नेह।