दिल्ली का दर्द
गेहिनी बन घर सँवारा
धार भूषण झिलमिलाई
सैंकड़ों व्याघात झेले
चोट करती हर बिलाई।
राजरानी ये सिया सी
स्वामिनी भी तपस्विनी भी
सिर मुकुट धारा कभी तो
बन रही वो अधस्विनी भी
मौन बहते नेत्र जल को
पोंछ कर भी खिलखिलाई।।
आक्रमण के दंश तन पर
झेल कर आघात भारी
रोम से बहता लहू था
नाचती शायक दुधारी
नित फटे पोशाक बदले
और उधड़े की सिलाई।।
साथ लेकर दीर्घ गाथा
एक नगरी लाख पहरी
धैर्य के जब बाँध टूटे
बह चली तब पीर गहरी
चीखता प्राचीर क्रंदन
आज दिल्ली तिलमिलाई।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सुंदर सार्थक रचना ।
ReplyDeleteनव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई ll
हृदय से आभार आपका।
Deleteसादर।
साथ लेकर दीर्घ गाथा
ReplyDeleteएक नगरी लाख पहरी
धैर्य के जब बाँध टूटे
बह चली तब पीर गहरी
चीखता प्राचीर क्रंदन
आज दिल्ली तिलमिलाई।
बहुत सटीक ...एक नगरी लाख पहरी की अनेकों दीर्घ गाथाओं के साथ दिल्ली ।
वाह!!!!
सार्थक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
Deleteसस्नेह आभार आपका सुधा जी।