ग़ज़ल (गीतिका)
२१२२×४
मन: स्थिति
आज जीने के लिये लो चेल कितने ही सिए हैं।
मान कर सुरभोग विष के घूँट कितनों ने पिए हैं।।
दाग अपने सब छुपाते धूल दूजों पर उड़ाते ।
दिख रहा जो स्वर्ण जैसा पात खोटा ही लिए है।।
रह रहे मन मार कर भी कुछ यहाँ संसार में तो।
धीर कितनें जो यहाँ विष पान करके भी जिए है।।
दुश्मनों की नींद लूटे चैन भी रख दाँव पर वो।
रात दिन रक्षा करे जो प्राण निज के भी दिए हैं।।
जी रहा कोई यहाँ बस स्वार्थ अपने साधने को।
वीरता से देश हित में काम कितनों ने किए है।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(३०-१०-२०२१) को
'मन: स्थिति'(चर्चा अंक-४२३२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत आभार आपका चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए।
Deleteसादर सस्नेह।
रह रहे मन मार कर भी कुछ यहाँ संसार में तो।
ReplyDeleteधीर कितनें जो यहाँ विष पान करके भी जिए है।।
बहुत सुंदर रचना, कुसुम दी।
बहुत बहुत आभार आपका ज्योति बहन।
Deleteआपकी टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
सस्नेह।
बेहतरीन गीतिका सखि
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका सखी आपको पसंद आई गीतिका सार्थक हुई।
Deleteसस्नेह।
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आलोक जी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteवाह!गज़ब का सृजन 👌
ReplyDeleteसादर
सस्नेह आभार प्रिय अनिता आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से
Deleteरचना गतिमान हुई।
सस्नेह।
बहुत सुन्दर कुसुम जी !
ReplyDeleteआज का दौर लोक-कल्याण के लिए विषपान करने वाले का नहीं है !
आज तो आस्तीन के साँपों का और पीठ में छुरा भोंकने वाले दोस्तों का, ज़माना है.
सही कहा आपने सर पर सकारात्मक सोच हो तो बहुत कुछ अच्छा हो सकता है ये मेरा मानना है , भावों की उत्तमता सदा सकारात्मक उर्जा का संचार करती है ।
Deleteकुछ अच्छाइयां सदा बुराईयों से लड़ती रहती है।
वैसे आपने दुरुस्त फ़रमाया ।
हृदय से आभार आपका ब्लॉग पोस्ट पर आपकी उपस्थिति के लिए।
सादर।
रह रहे मन मार कर भी कुछ यहाँ संसार में तो।
ReplyDeleteधीर कितनें जो यहाँ विष पान करके भी जिए है।।
एकदम सटीक ...
कष्टपूर्ण समय में धैर्य धारण यदि करें तो जीने और कष्टों से निकलने के नये मार्ग स्वतः मिलें...
लाजवाब सृजन।
सुंदर! भावों पर गहन विस्तृत चिंतन करती सार्थक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार सुधा जी ।
Deleteसस्नेह।