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Thursday, 21 October 2021

कह बतियाँ

कह बतियाँ


चल सखी ले घट पनघट चलें 

राह कठिन बातों में निकले।


अपने मन की कह दूँ कुछ तो

कुछ सुनलूँ तुमसे भी घर की

साजन जब से परदेश गये

परछाई सी रहती डर की

कुछ न सुहाता है उन के बिन

विरह प्रेम की बस हूक जले।।


अब कुछ भी रस नहीं लुभाते

बिन कंत पकवान भी फीके

कजरा गजरा मन से उतरे

न श्रृंगार लगे मुझे नीके

रैन दिवस नैना ये बरसते

श्याम हुवे कपोल भी उजले।।


कहो सखी अब अपनी कह दो

अपने व्याकुल मन की बोलो

क्या मेरी सुन दृग हैं छलके

अंतर रहस्य तुम भी खोलो

खाई चोट हृदय पर गहरी

या फिर कोई विष वाण चले।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

27 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२२-१०-२०२१) को
    'शून्य का अर्थ'(चर्चा अंक-४२२५)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. बहुत बहुत आभार आपका, चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए हृदय से आभार।
      सादर सस्नेह।

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  2. Replies
    1. सादर आभार आदरणीय।
      सादर।

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  3. बहुत सुंदर रचना, कुसुम दी।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका ज्योति बहन, उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया।
      सस्नेह।

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    1. सादर आभार आपका, उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया।

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  5. सुंदर रचना

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  6. Replies
    1. जी बहुत बहुत आभार आपका।
      सादर।

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  7. विरह रस में डूबी सुंदर रचना

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    1. सस्नेह आभार आपका अनिता जी।
      उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
      सस्नेह।

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  8. आपकी सृजनात्मक शक्ति प्रेरित करती है । आपके सृजन कौशल थी जितनी प्रशंसा करूं कम होगी । अति उत्तम भावाभिव्यक्ति।

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    1. टंकण त्रुटि के कारण थी* के स्थान पर "की" पढ़े 🙏

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  9. आपकी सृजनात्मक शक्ति प्रेरित करती है । आपके सृजन कौशल की जितनी प्रशंसा करूं कम होगी । अति उत्तम भावाभिव्यक्ति।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका मीना जी, आपका स्नेह मेरे लेखन के लिए उर्जा काम करता है।
      सदा स्नेह बनाए रखें।
      सस्नेह।

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  10. अतिसुंदर चित्रण व मार्मिक रचना

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
      सस्नेह।

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  11. Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका आलोक जी, उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
      सादर।

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  12. कहो सखी अब अपनी कह दो

    अपने व्याकुल मन की बोलो

    क्या मेरी सुन दृग हैं छलके

    अंतर रहस्य तुम भी खोलो

    खाई चोट हृदय पर गहरी

    या फिर कोई विष वाण चले।।

    . मीत से विरहन की पीड़ा को शब्दों पे पिरो आपने जीवंत कर दिया, बहुत ही हृदयस्परशी काव्याभिव्यक्ति ।सुंदर रचना ।

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    1. बहुत बहुत सा आभार आपका जिज्ञासा जी आपकी मोहक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
      रचना में निहित भावों को आपने सुंदरता से देखा रचना मुखरित हुई।
      सस्नेह।

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  13. बहुत बहुत आभार आपका सखी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
    सस्नेह।

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  14. यह कविता मैंने तनिक विलंब से पढ़ी किन्तु इसका भाव तो शाश्वत है - युगों से विद्यमान है व अनिश्चित काल तक विद्यमान रहने वाला है। यह एक अनूठी कविता है जिसके भाव को उसके शब्दों से भी आत्मसात् किया जा सकता है तथा उन शब्दों के पार जाकर भी।

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