निज पर विश्वास
निजता का सम्मान
निराशा में जिसने खोया।
राही भटका राह
निशा तम में घिरकर सोया।।
रे चेतन ये सोच
जगत में तू उत्तम कर्ता
पर जो खेले खेल
वही तो होता है भर्ता
भावों का विश्वास
जहाँ भी टूटा वो रोया।
निज भीतर की शक्ति
अरे जानो तोलो झांको
अज्ञानी मृग कौन
तुम्हीं सृष्टा हो मन आंको
जागेगा अब भाग
विवेकी का दाना बोया।।
दृष्टा बनके देख
अजा का अद्भुत है लेखा
जिसने लेली सीख
बदल ली हाथों की रेखा
उलझा रेशम छोड़
बटे तृण में मोती पोया।।
अजा=प्रकृति
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (24-09-2021) को "तुम रजनी के चाँद बनोगे ? या दिन के मार्त्तण्ड प्रखर ?" (चर्चा अंक- 4197) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
जी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteमैं चर्चा में उपस्थित रहूंगी।
सादर सस्नेह।
निज भीतर की शक्ति
ReplyDeleteअरे जानो तोलो झांको
अज्ञानी मृग कौन
तुम्हीं सृष्टा हो मन आंको
बहुत खूब,सुंदर सृजन,सादर नमन कुसुम जी
बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी।
Deleteआपकी टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
सदा स्नेह बनाए रखें।
सस्नेह।
मैंने इस कविता को हृदयंगम कर लिया है।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसादर।
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसादर।
दृष्टा बनके देख
ReplyDeleteअजा का अद्भुत है लेखा
जिसने लेली सीख
बदल ली हाथों की रेखा
उलझा रेशम छोड़
बटे तृण में मोती पोया।।
आशा और उम्मीद की किरण बिखेरती उत्तम कृति ।
बहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी।
Deleteआपकी टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
सस्नेह।
सच कहा दी आपने आत्मशक्ति से बड़ी कोई शक्ति नहीं।
ReplyDeleteइर्द-गिर्द डोलती भटकाव की वस्तुएं कहाँ झाँकने देती है मनुष्य को निज में।
वाह!लाज़वाब सृजन।
सादर
वाह! सुंदर मंथन करती प्रतिपंक्तियाँ , भावों को स्पष्ट करने में सार्थक सहयोग करती सुंदर प्रतिक्रिया ।
Deleteसस्नेह आभार।
वाह!खूबसूरत सृजन कुसुम जी ।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका शुभा जी ।
Deleteसदा स्नेह देते रहें ।
सस्नेह।
बढ़िया सीख देती सुंदर रचना ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका संगीता जी।
Deleteस्नेह मिलता रहे आपका।
सादर सस्नेह।
सुंदर सत्वपूर्ण कृति !!
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका अनुपमा जी रचना को स्नेह देने के लिए।
Deleteसस्नेह ।
बहुत सुंदर प्रस्तुति कुसुम जी।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका, उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया।
Deleteसादर।
निजता का सम्मान
ReplyDeleteनिराशा में जिसने खोया।
राही भटका राह
निशा तम में घिरकर सोया।।
बहुत सटीक संदेशप्रद और अत्यंत सारगर्भित लाजवाब नवगीत
अंतर्मन की शक्ति आँकने वाला कुछ भी कर सकता है....।
दृष्टा बनके देख
अजा का अद्भुत है लेखा
जिसने लेली सीख
बदल ली हाथों की रेखा
उलझा रेशम छोड़
बटे तृण में मोती पोया।।
वाह!!!!
कमाल का शिल्प विधान।
बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी आपकी मोहक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसस्नेह।
निज भीतर की शक्ति
ReplyDeleteअरे जानो तोलो झांको
अज्ञानी मृग कौन
तुम्हीं सृष्टा हो मन आंको
बहुत खूबसूरत रचना
जी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteतूफान से लड़कर कश्ती पतवार हो जाती हैं।
ReplyDeleteबूँद-बूँद बारिश बहती नदी की धार हो जाती है।
धुँध,गर्द,अंधेरे जब ढँक लें उजियारा मन का,
नन्हीं-सी इक आस की किरण शीतलता से
अंधेरों के कवच तोड़ कर आर-पार हो जाती है।
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बेहतरीन संदेशात्मक बहुत सुंदर सृजन दी।
सादर।
वाह क्या बात है श्वेता, सुंदर! बहुत सुंदर भाव रच दिए आपने मेरी रचना लगता है पूर्ण हुई।
ReplyDeleteसस्नेह आभार आपका।
जी सादर आभार आपका में मंच पर अवश्य उपस्थित रहूंगी।
ReplyDeleteसादर सस्नेह।