नीरव मुखरित
खिलते उपवन पात
महक मकरंदी बहजाती।
फूलों की रस गंध
सखे अलि को लिखती पाती।
शोभा कैसी आज
धरा ओढ़े चुनरी धानी
मधुमासी है वात
जलाशय कंचन सा पानी
मोहक रूपा काल
बहे नदिया भी बलखाती।।
चंचल मन के भाव
झनक स्वर में बोले पायल
सुन श्यामा की राग
पपीहा होता है घायल
मधुरिम झीना हाथ
हवा धीरे से सहलाती।।
छेड़े मन के राग
सुरों की मुरली बहकी सी
नीरव तोड़े मौन
पुहुप की डाली महकी सी।
घर के पीछे बड़बेर
सुना बेरों से बतियाती।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteसुंदर हृदयस्पर्शी भाव
ReplyDeleteउत्साहवर्धन के लिए हृदय से आभार।
Deleteसस्नेह।
अति मनमोहक सृजन दी।
ReplyDeleteऋतुओं के सारे भाव और रंग आपकी रचनाओं में जीवंत होकर खिलखिलाते हैं।
प्रणाम दी
सादर।
सस्नेह आभार बहना, आपकी जीवंत प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसस्नेह।
बहुत सुंदर ♥️
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteएक एक शब्द मन में उतर गया सुंदर प्राकृतिक चित्रण किया है आपने ।बहुत शुभकामनाएं आपको ।
ReplyDeleteसस्नेह आभार आपका जिज्ञासा जी, आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसस्नेह।
बहुत सुंदर कुसुम जी, ऐसा लगा कि मैं दिनकर जी और सुमित्रानंदन पंत की पहाड़ों वाली कविता का सम्मिश्रण पढ़ रही हूं। वाह क्या बात लिखी है कि----शोभा कैसी आज
ReplyDeleteधरा ओढ़े चुनरी धानी
मधुमासी है वात
जलाशय कंचन सा पानी।
ओह! अलकनंदाजी आपने तो मुझे कहां बिठा दिया !
Deleteनिशब्द हूं मैं।
बहुत बहुत आभार आपका आपका स्नेह सदा मिलता रहे।
सस्नेह आभार आपका।
वाह!!!
ReplyDeleteबहुत हु मनमोहक सृजन
मधुमासी महक गयी मन में...
बहुत ही लाजवाब।
बहुत बहुत आभार सुधा जी,आपके सुंदर बोलो से मधुमासी यहां भी महक उठी ।
Deleteसस्नेह।
बहुत सुंदर रचना,कुसुम दी।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका ज्योति बहन।
Deleteसस्नेह।
जी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
ReplyDelete