अवसरवादी
अवसर का सोपान बना कर
समय काल का लाभ लिया।
रीति नीति की बातें थोथी
निज के हित का घूँट पिया।
कौन सोचता है औरों की
अपना ही सिट्टा सेके
झुठी सौगंध तक खा जाते
हाथों गंगाजल लेके
गूदड़ कर्मों की अति भारी
जाने क्या-क्या पाप सिया।।
क्या होता तो दिखता क्या है
भरम यवनिका डाल रहे
लाठी वाले भैंस नापते
निर्बल अत्याचार सहे
दूध फटे का मोल लगाया
ऐसा भी व्यापार किया।।
पोल ढोल की छुपी रहे है
लगती जब तक चोट नही
खुल जाये तो बात बदल दे
जैसे कोई खोट नहीं
फटे हुए पर खोल चढ़ाकर
अनृत आवरण बाँध दिया।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 17 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी मैं अभिभूत हूँ, मंच पर उपस्थित रहूंगी।
Deleteसादर आभार।
समाज में नित तरह तरह के बहरूपिये मिलते हैं, एक श्रेणी अवसरवादियों की है, सार्थक परिदृश्य दिखाती यथार्थवादी रचना,बहुत बधाई आपको।
ReplyDeleteरचना के भावों को समर्थन देती सुदृढ़ पंक्तियां, जिससे रचना में नई रवानी का समावेश हुआ।
Deleteसस्नेह आभार जिज्ञासा जी।
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आलोक जी।
Deleteसादर।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१८-०९-२०२१) को
'ईश्वर के प्रांगण में '(चर्चा अंक-४१९१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
चर्चा मंच पर रचना को शामिल करना, मेरे लिए सदा हर्ष का विषय है।
Deleteमैं चर्चा पर उपस्थित रहूंगी।
सादर सस्नेह।
बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसादर।
आज के स्वार्थी चेहरों की पोल खोलती सुंदर रचना ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी सदा लेखनी को उर्जा प्रदान करती है।
Deleteसादर सस्नेह।
का हानि? समयच्युति। अर्थात वर्तमान में स्वार्थ वाले अवसर को चूकना ही हानि हो गया है इसलिए ऐसा हो रहा है । अति सुन्दर काव्य कृति ।
ReplyDeleteआपकी गहन टिप्पणी ने रचना में निहित भावों का निचोड़ कह दिया है।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका।
सादर सस्नेह।
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका उत्साहवर्धन हुआ।
Deleteसादर।
गहन रचना...
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका, उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए।
Deleteसादर।
कौन सोचता है औरों की
ReplyDeleteअपना ही सिट्टा सेके
झुठी सौगंध तक खा जाते
हाथों गंगाजल लेके
गूदड़ कर्मों की अति भारी
जाने क्या-क्या पाप सिया।।
अवसरवादियों को सटीक परिभाषित करता लाजवाब नवगीत...
लाठी वाले भैंस नापते!!!
वाह!!!
कमाल के बिम्ब एवं व्यंजनाएं।
मैं अभिभूत हूं सुधाजी आपकी मोहक टिप्पणी मन को हर्ष से लबरेज कर गई।
Deleteसच आपका स्नेह सदा मेरी लेखनी को उर्जा प्रदान करता है।
सदा स्नेह बनाए रखें।
ढेर सा आभार।
सस्नेह।
बहुत सुंदर रचना....
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
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