भाव शून्य
क्रूर सोच जगती में बढ़ती
पाप कर्म के मेघ सघन।
अपना ही सब संगम रचते
बने टनाटन कर नाहन ।।
भाव शून्य हैं पाथर जैसे
गर्म तवे ज्यों बूंद गिरी
संवेदन सब सूख गये हैं
मानवता अवसाद घिरी
कण्टक के तरुवर को सींचा
पुष्प महकता कब उपवन।।
मानव और पशु का अंतर
जिनको समझ नहीं आता
उनसे आशा व्यर्थ पालना
जिनको निज यश ही भाता
अर्थ नाम लिप्सा में उलझे
अहम समेटे हैं जो मन।।
दान पुण्य का खूब दिखावा
उजली चादर मन काला
पीठ पलटते ताव दिखाते
हाथ फेरते झूठी माला
अंतस मैला वहीं जमा है
खूब रगड़ते है बस तन।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
मानव और पशु का अंतर
ReplyDeleteजिनको समझ नहीं आता
उनसे आशा व्यर्थ पालना
जिनको निज यश ही भाता
अर्थ नाम लिप्सा में उलझे
अहम समेटे हैं जो मन।।
वाह!!!
लाजवाब नवगीत कुसुम जी!निज यश चाहने वाले आत्ममुग्धा से कोई भी आशा करना बेकार है
भावशून्य पत्थर दिल इंसानों की संवेदनहीनता एवं दिखावे के लिए दान पुण्य करने वालों के लिए खूब खरी खरी.....
हमेशा की तरह उत्कृष्ट सृजन।
🙏🙏🙏🙏
सुधाजी आपकी सारगर्भित टिप्पणी रचना को उर्जावान कर गई ।
Deleteसस्नेह आभार आपका।
सुंदर मनभावन प्रतिक्रिया।
संवेदनहीन होते हम !!
ReplyDeleteजी सही आंकलन ।
Deleteसादर आभार आपका।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१७-०७-२०२१) को
'भाव शून्य'(चर्चा अंक-४१२८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी सादर आभार आपका, मैं मंच पर उपस्थिति देकर आई हूं ।
Deleteरचना को चर्चा में शामिल करने के लिए हृदय से आभार।
वाह
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteमानव और पशु का अंतर
ReplyDeleteजिनको समझ नहीं आता
उनसे आशा व्यर्थ पालना
जिनको निज यश ही भाता
अर्थ नाम लिप्सा में उलझे
अहम समेटे हैं जो मन।।
दान पुण्य का खूब दिखावा
उजली चादर मन काला
पीठ पलटते ताव दिखाते
हाथ फेरते झूठी माला
अंतस मैला वहीं जमा है
खूब रगड़ते है बस तन।।
बहुत ही उम्दा , लाजवाब, बेमिसाल और अति सुन्दर रचना जितनी तारीफ की जाए कम ही है!
एकदम सच कहा आपने दान पुण्य का दिखावा आज के समय में कुछ ज्यादा ही चलन में है खासकर अमीरों में!
मुंह में राम बगल में छूरी!
और मानवता का तो कोई महत्व ही नहीं रहा !
विस्तृत व्याख्यात्मक टिप्पणी मनीषा जी।
Deleteमन को राहत देती सी लेखन में उर्जा भरती सी।
सस्नेह आभार आपका।
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आलोक जी।
Deleteसादर।
मानव और पशु का अंतर
ReplyDeleteजिनको समझ नहीं आता
उनसे आशा व्यर्थ पालना
जिनको निज यश ही भाता
अर्थ नाम लिप्सा में उलझे
अहम समेटे हैं जो मन।।
उत्कृष्ट सृजन सखी।
बहुत बहुत आभार आपका सखी।
Deleteउत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
सस्नेह।
मानव और पशु का अंतर
ReplyDeleteजिनको समझ नहीं आता
उनसे आशा व्यर्थ पालना
जिनको निज यश ही भाता--जी बहुत ही शानदार लेखन।
बहुत बहुत आभार आपका। उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ।
Deleteसादर।
बहुत खूब
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteभाव शून्यता कहते हुए खरी खरी लिख दी ।
ReplyDeleteसटीक और सार्थक लेखन।
आपकी सार्थक प्रतिक्रिया से रचना प्रवाह मान हुई संगीता जी।
Deleteसादर सस्नेह आभार आपका।
मुंह में राम और बगल में छुरी ही हमारा चरित्र हो गया है । अति सूक्ष्म अभिव्यक्ति । अति सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteबहुत गहनता से रचना पर दृष्टि आपकी ।
Deleteसुंदर गहन प्रतिक्रिया।
सस्नेह आभार आपका अमृता जी।
संवेदनाहीनता का वास्तविक चित्रण । हर बंध मानो स्वार्थपरता को आईना दिखाता हुआ । सार्थक सृजन।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका मीना जी, रचना में निहित भावों पर आपकी विहंगम दृष्टि ने रचना को गतिमान किया ।
Deleteसस्नेह।
दान पुण्य का खूब दिखावा
ReplyDeleteउजली चादर मन काला
पीठ पलटते ताव दिखाते
हाथ फेरते झूठी माला
सवेंदनहीन होते जा रहें है हम,मन पर प्रहार करती लाज़बाब सृजन कुसुम जी,सादर नमन
बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी आपकी प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई और लेखन को नव उर्जा मिली।
Deleteसस्नेह।
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ReplyDeleteमानव और पशु का अंतर
ReplyDeleteजिनको समझ नहीं आता
उनसे आशा व्यर्थ पालना
जिनको निज यश ही भाता
अर्थ नाम लिप्सा में उलझे
अहम समेटे हैं जो मन।।
...यथार्थ का सटीक वर्णन किया है आपने,सच में आज दिखावे का जीवन ही,आम लोगों की पहली पसंद है,सार्थक सृजन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।
बहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी।
Deleteव्याख्यात्मक टिप्पणी सदा ही रचना को प्रवाह देती है
आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से मैं अभिभूत हूं।
सस्नेह।