ऐ चाँद तुम...
ऐ तुमचाँद
कभी किसी भाल पर
बिंदिया से चमकते हो
कभी घूँघट की आड़ से
झाँकता गोरी का आनन
कभी विरहन के दुश्मन
कभी संदेश वाहक बनते हो
क्या सब सच है
या है कवियों की कल्पना
विज्ञान तुम्हें न जाने
क्या क्या बताता है
विश्वास होता है
और नहीं भी
क्योंकि कवि मन को
तुम्हारी आलोकित
मन को आह्लादित करने वाली
छवि बस भाती
भ्रम में रहना सुखद लगता
ऐ चांद मुझे तुम
मन भावन लगते
तुम ही बताओ तुम क्या हो
सच कोई जादू का पिटारा
या फिर धुरी पर घूमता
एक नीरस सा उपग्रह बेजान।।
ऐ चांद तुम.....
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
लाजवाब।
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०७-११-२०२०) को 'मन की वीथियां' (चर्चा अंक- ३८७८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
कितने रूपों में चाँद, कविमन का अपना ही अलग चाँद।
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
सुंदर प्रस्तुति
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