ढलती रही रात
चंद्रिका के हाथों
धरा पर एक काव्य का
सृजन होता रहा
ऐसा अलंकृत रस काव्य
जिसे पढने
सुनहरी भास्कर
पर्वतों की उतंग
शिखा से उतर कर
वसुंधरा पर ढूंढता रहा
दिन भर भटकता रहा
कहां है वो ऋचाएं
जो शीतल चांदनी
उतरती रात में
रश्मियों की तूलिका से
रच गई
खोल कर अंतर
दृश्यमान करना होगा
अपने तेज से
कुछ झुकना होगा
उसी नीरव निशा के
आलोक में
शांत चित्त हो
अर्थ समझना होगा
सिर्फ़ सूरज बन
जलने से भी
क्या पाता इंसान
ढलना होगा
रात का अंधकार
एक नई रोशनी का
अविष्कार करती है
वो रस काव्य सुधा
शीतलता का वरदान है
सुधी वरण करना होगा ।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय।
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 23 नवंबर 2020 को 'इन दिनों ज़रूरी है दूसरों के काम आना' (चर्चा अंक-3894) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत बहुत आभार आपका,मैं चर्चा पर अवश्य उपस्थित रहूंगी।
Deleteसादर।
सुंदर सृजन..।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसस्नेह।
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसुंदर सजृन। आपको बधाई।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।
बहुत ही सुंदर सृजन दी सराहना से परे।
ReplyDeleteसादर
बहुत बहुत आभार ।
Deleteसस्नेह।
सिर्फ़ सूरज बन
ReplyDeleteजलने से भी
क्या पाता इंसान
ढलना होगा
रात का अंधकार
एक नई रोशनी का
अविष्कार करती है
वाह!!!
बहुत सुन्दर एवं सार्थक सृजन।
बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी उत्साह वर्धन करती आपकी प्रतिक्रिया सदा मोहक हैती है।
Deleteसस्नेह।
उसी नीरव निशा के
ReplyDeleteआलोक में
शांत चित्त हो
अर्थ समझना होगा
सिर्फ़ सूरज बन
जलने से भी
क्या पाता इंसान
ढलना होगा, सुन्दर रचना।
बहुत बहुत आभार आपका, सार्थक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसुंदर सृजन
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