अनासक्त निर्झर
शैल खंड गिर चोटिल होते
फिर भी मोती झरते जैसे
चोट लगे कभी हृदय स्थल पर
सह जाते सब पीड़ा ऐसे।
किस पर्वत की ऊंची चोटी
बर्फ पसर कर लम्बी सोती
रेशम जैसे वस्त्र पहनती
धूप मिले तो कितना रोती
जन्म तुम्हारा हुआ पीर से
और बने निर्झर तुम तैसे।।
पथरीले सोपान उतरकर
रुकता नही निरंतर चलता
प्रचंड़ कभी गंभीर अथाह
धूप ताप में हरपल जलता
पर्वत का आँसू है झरना
नदी हर्ष की गाथा कैसे ।।
झील पोखरा सरिता बनकर
निज आख्या तक भी छोड़ जिये
एक पावनी गंगा बनकर
फिर जाने कितने त्याग किये
लेना चाहे ले सकता है
नही नीर के कोई पैसे ।।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'
शानदार। बहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteअप्रतिम सृजन 👌👌👌👌
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteशैल खंड गिर चोटिल होते
ReplyDeleteफिर भी मोती झरते जैसे
चोट लगे कभी हृदय स्थल पर
सह जाते सब पीड़ा ऐसे।
...बहुत ही सुंदर चिंतन। शुभकामनाएँ आदरणीया।