आज पितृ दिवस पर
देकर मुझ को छांव घनेरी
कहां गये तुम हे तरूवर
अब छांव कहां से पाऊं
देकर मुझको शीतल नीर
कहां गये हे नीर सरोवर
अब अमृत कहां से पाऊं
देकर मुझको चंद्र सूर्य
कहां गये हे नीलांबर
अब प्राण वात कहां से पाऊं
देकर मुझको आधार महल
कहां गये हे धराधर
अब मंजिल कहां से पाऊं
देकर मुझ को जीवन
कहां गये हे सुधा स्रोत
अब हरितिमा कहां से पाऊं।
कुसुम कोठरी।
देकर मुझ को छांव घनेरी
कहां गये तुम हे तरूवर
अब छांव कहां से पाऊं
देकर मुझको शीतल नीर
कहां गये हे नीर सरोवर
अब अमृत कहां से पाऊं
देकर मुझको चंद्र सूर्य
कहां गये हे नीलांबर
अब प्राण वात कहां से पाऊं
देकर मुझको आधार महल
कहां गये हे धराधर
अब मंजिल कहां से पाऊं
देकर मुझ को जीवन
कहां गये हे सुधा स्रोत
अब हरितिमा कहां से पाऊं।
कुसुम कोठरी।
देकर मुझ को छांव घनेरी
ReplyDeleteकहां गये तुम हे तरूवर
अब छांव कहां से पाऊं...
पिता को खोकर कोई कैसे जीता है कोई उससे पूछे जो पिता को बचपन में ही खो चुका है। अत्यंत ही भाव प्रवण रचना हेतु बधाई आदरणीया कुसुम जी।
बहुत बहुत आभार आपका प्रोत्साहन के लिए सार्थक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteदेकर मुझ को जीवन
ReplyDeleteकहां गये हे सुधा स्रोत
अब हरितिमा कहां से पाऊं।
अप्रतिम ... बहुत कुछ कहती पिता को समर्पित अनुपम रचना ।
बहुत बहुत आभार मीना जी आपकी प्रतिक्रिया से रचना को सार्थकता मिली ।
Deleteसस्नेह ।
देकर मुझ को छांव घनेरी
ReplyDeleteकहां गये तुम हे तरूवर
अब छांव कहां से पाऊं
बस उनकी शीतल छाँव का एहसास ही बाकी हैं ,बहुत कुछ कहती मार्मिक रचना कुसुम जी
बहुत सा आभार कामिनी जी सच बस स्मृतियों में भी एक आभास है ।
Deleteआपकी प्रतिक्रिया से भावों को समर्थन मिला।
सस्नेह
बहुत ही भावस्पर्शी उद्बोधन पिता के नाम प्रिय कुसुम बहन | पिता के जाने के बाद ना कोई छाँव बचती है ना कोई सुधा सरोवर ! उनके जाने के साथ बहुत सी चींजें जीवन से विदा हो जाती हैं जिनका विकल्प कभी जीवन में नहीं मिल पाता | सचमुच एक ऐसा कान्धा खो जाता है जिसपर सर रखकर हमें जीवन का सबसे बड़ा सुकून मिलता है | मार्मिक रचना के लिए साधुवाद | साथ में मेरा प्यार आपके लिए |
ReplyDeleteआपकी सराहना की पंक्तियाँ रचना के समानांतर उसमें निहित भावों को समर्थन देरी है आपकी सुंदर सक्रिय प्रतिक्रिया से रचना को प्रवाह मिला
Deleteबहुत बहुत सा स्नेह रेणु बहन
बहुत ही सुन्दर और मार्मिक रचना सखी
ReplyDeleteसादर
सस्नेह ढेर सा बहना।
Deleteबहुत बहुत आभार।
सस्नेह
अधिकार, क्षोभ, करुणा, आत्मीयता, राग, उछाह... सब कुछ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सराहना के शब्द आपका बहुत सा आभार रचना को विशेष संबोधन मिला।
Deleteसादर।
पिता को समर्पित भाव मन को छू रहे हैं ...
ReplyDeleteगहरे शब्द ...
देकर मुझको आधार महल
ReplyDeleteकहां गये हे धराधर
अब मंजिल कहां से पाऊं... बेहद हृदयस्पर्शी रचना सखी 👌