ओ गगन के चंद्रमा मै शुभ्र ज्योत्सना तेरी हूं
तूं आकाश भाल विराजित मै धरा तक फैली हूं
ओ अक्षूण भास्कर मै तेरी उज्ज्वल प्रभा हूं
तूं विस्तृत नभ मे आच्छादित मै तेरी प्रतिछाया हूं
ओ घटा के मेघ शयामल मै तेरी जल धार हूं
तूं धरा की प्यास हर मै तेरा तृप्त अनुराग हूं
ओ सागर अन्तर तल गहरे मै तेरा विस्तार हूं
तूं घोर रोर प्रभंजन है मै तेरा अगाध उत्थान हूं
ओ मधुबन के हर सिंगार मै तेरा रंग गुलनार हूं
तूं मोहनी माया सा है मै निर्मल बासंती बयार हूं।
कुसुम कोठारी।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteखूबसूरत शब्दों से सजी
सुंदर भावपूर्ण रचना
बहुत बहुत आभार सखी।
ReplyDeleteप्राकृति के रंग लिए सुंदर रचना है ...
ReplyDeleteजी सादर आभार।
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