मैं का बोलबाला
तम की कालिमा से निकाला
भोर की लाली ने फिर सँवारा
पवन दे रही थी मधुर हिलोर
पल्लव थाल मोती ओस के कोर
शुभ आरती उतारे उषा कुमारी ।।
ऊँचाईओं पर आके बदला आचार
ललाट की सिलवटें बता जाती सब सार।
लो घमंड की पट्टी सी चढ़ी आँखों अभी
सामने अब अपने लगते हैं तुच्छ सभी।
मैं का ही रहा सदा बोल-बाला भारी।
गर्व में यह क्यों भूल बैठता मूर्ख मनु
दिवस की पीठ पर सवार साँझ का धनु।
ठहराव शिखर रहता कब किसका कहाँ
पूजा व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व की होती यहाँ।
ऊँचाई के पश्चात पतन की दुश्वारी।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
वाह, बिलकुल सही लिखा है आपने।🌻❤️
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका शिवम् जी।
Deleteउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
सादर।
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (21-8-22} को "मस्तक का अँधियार हरो"(चर्चा अंक 4528) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
हृदय से आभार आपका कामिनी जी चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए।
Deleteसादर सस्नेह।
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (21-8-22} को "मस्तक का अँधियार हरो"(चर्चा अंक 4528) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
सादर आभार।
Delete"पूजा व्यक्ति की नहीं व्यक्तित्व की होती यहाँ"। बहुत सुदर आदरणीय कुसुम जी। बहुत-बहुत बधाई। सादर।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका।
Deleteसादर।
ठहराव शिखर रहता कब किसका कहाँ
ReplyDeleteपूजा व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व की होती यहाँ।
बहुत सही सटीक एव़ लाजवाब
वाह!!!
बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी।
Deleteआपकी टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
सस्नेह।
जी हृदय से आभार आपका।
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