Friday, 19 August 2022

मैं का बोलबाला


 मैं का बोलबाला 


तम की कालिमा से निकाला

भोर की लाली ने फिर सँवारा 

पवन दे रही थी मधुर हिलोर

पल्लव थाल मोती ओस के कोर

शुभ आरती उतारे उषा कुमारी ।।


ऊँचाईओं पर आके बदला आचार

ललाट की सिलवटें बता जाती सब सार।

लो घमंड की पट्टी सी चढ़ी आँखों अभी

सामने अब अपने लगते हैं तुच्छ सभी।

मैं का ही रहा सदा बोल-बाला भारी।


गर्व में यह क्यों भूल बैठता मूर्ख मनु

दिवस की पीठ पर  सवार साँझ का धनु।

ठहराव शिखर रहता कब किसका कहाँ

पूजा व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व की होती यहाँ।

ऊँचाई के पश्चात पतन की दुश्वारी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

11 comments:

  1. वाह, बिलकुल सही लिखा है आपने।🌻❤️

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    1. हृदय से आभार आपका शिवम् जी।
      उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
      सादर।

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (21-8-22} को "मस्तक का अँधियार हरो"(चर्चा अंक 4528) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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    1. हृदय से आभार आपका कामिनी जी चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए।
      सादर सस्नेह।

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  3. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (21-8-22} को "मस्तक का अँधियार हरो"(चर्चा अंक 4528) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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  4. "पूजा व्यक्ति की नहीं व्यक्तित्व की होती यहाँ"। बहुत सुदर आदरणीय कुसुम जी। बहुत-बहुत बधाई। सादर।

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    1. हृदय से आभार आपका।
      सादर।

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  5. ठहराव शिखर रहता कब किसका कहाँ

    पूजा व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व की होती यहाँ।

    बहुत सही सटीक एव़ लाजवाब
    वाह!!!

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    1. बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी।
      आपकी टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
      सस्नेह।

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  6. जी हृदय से आभार आपका।

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