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Wednesday, 24 August 2022

सामायिक चिंतन


 गीतिका/2122 2122 2122 212.


सामायिक चिंतन


नीर भी बिकने लगा है आज के इस काल में।

हर मनुज फँसता रहा इस मुग्ध माया जाल में।।


अब मिलावट वस्तुओं में बाढ़ सी बढ़ती रही।

कंकरों के जात की भी करकरी है दाल में।।


आपचारी बन रहा मानव अनैतिक भी हुआ। 

दोष अब दिखता नहीं अपनी किसी भी चाल में।


छाछ को अब कौन दे सम्मान इस जग में कहो।

स्वाद सबको मुख्य है मानस फँसा है माल में।


आपदा के योग पर संवेदनाएं वोट की।

दु:ख की तो संकुचन दिखती नहीं इक भाल में।।


मानकों के नाम पर बस छल दिखावे शेष हैं।

बाज आँखे तो टिकी रहती सदा ही खाल में।


बात किस-किस की कहे मुख से 'कुसुम' अपने भला।

भांग तो अब मिल चुकी है आचरण के ताल में।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

8 comments:

  1. बात किस-किस की कहे मुख से 'कुसुम' अपने भला।

    भांग तो अब मिल चुकी है आचरण के ताल में।।
    वाह! बहुत उम्दा अल्फाज में आज की हकीकत का खुलासा किया है। बधाई!!

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  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 26 अगस्त 2022 को 'आज महिला समानता दिवस है' (चर्चा अंक 4533) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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  3. समय को साधकर लिखी बहुत अच्छी रचना

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  4. वाह.बहुत सुंदर

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  5. वाह!वाह! गज़ब कहा आदरणीय दी 👌
    सादर

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  6. समसामयिक समस्या पर गजब की व्यंगात्मक रचना, बहुत सुंदर

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  7. आज के समाज को परिलक्षित करती सुन्दर रचना

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  8. बहुत सटीक सामयिक चिंतन
    छाछ को अब कौन दे सम्मान इस जग में कहो।
    स्वाद सबको मुख्य है मानस फँसा है माल में।
    वाह!!!

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