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Tuesday, 16 August 2022

स्वार्थ के राग


 स्वार्थ का राग


अमन शांति के स्वर गूंजे तब

मनुज राग से निकले

दुनिया कैसी बदली-बदली

गरल हमेशा उगले।।


अमरबेल बन करके लटके 

वृक्षों का रस सोखे

जिसके दामन से लिपटी हो

उस को ही दे धोखे

हाथ-हाथ को काट रहा है

भय निष्ठा को निगले।।


बने सहायक प्रेम भाव जो 

सीढ़ी बन पग धरते

जिनके कारण बने आदमी

उनकी दुर्गत करते

स्वार्थ भाव का कारक तगड़ा 

धन के पीछे पगले।।


चहुं दिशा विपदा का डेरा

छूटा सब आनंद है

सम भावों में जो है रहते

उन्हें परमानंद है

समता भाईचारा छूटा 

धैर्य क्रोध से पिघले।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

10 comments:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलबुधवार (17-8-22} को "मेरा वतन" (चर्चा अंक-4524) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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    Replies
    1. बहुत आभार आपका कामिनी जी।
      चर्चा मंच पर रचना को देखना सदा सुखद अनुभव है।
      सस्नेह।

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  2. बहुत ही सुन्दर रचना सखी

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    Replies
    1. हृदय से आभार आपका सखी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
      सस्नेह।

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  3. समता ही जीवन का सार है

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    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका अनिता जी आपकी प्रतिक्रिया से रचना को नव उर्जा मिली।
      सादर सस्नेह।

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  4. वर्तमान का क्या ख़ूब खा खा खींचा।
    गज़ब कहा आदरणीय दी 👌

    अमरबेल बन करके लटके

    वृक्षों का रस सोखे

    जिसके दामन से लिपटी हो

    उस को ही दे धोखे.. वाह!निशब्द करता बंद।
    सादर स्नेह

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    Replies
    1. समर्थन देती प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई प्रिय अनिता।
      हृदय से आभार आपका।
      सस्नेह।

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  5. चहुं दिशा विपदा का डेरा
    छूटा सब आनंद है
    सम भावों में जो है रहते
    उन्हें परमानंद है
    समता भाईचारा छूटा
    धैर्य क्रोध से पिघले।।
    .. बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति।

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    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी।
      उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
      सस्नेह।

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