स्वार्थ का राग
अमन शांति के स्वर गूंजे तब
मनुज राग से निकले
दुनिया कैसी बदली-बदली
गरल हमेशा उगले।।
अमरबेल बन करके लटके
वृक्षों का रस सोखे
जिसके दामन से लिपटी हो
उस को ही दे धोखे
हाथ-हाथ को काट रहा है
भय निष्ठा को निगले।।
बने सहायक प्रेम भाव जो
सीढ़ी बन पग धरते
जिनके कारण बने आदमी
उनकी दुर्गत करते
स्वार्थ भाव का कारक तगड़ा
धन के पीछे पगले।।
चहुं दिशा विपदा का डेरा
छूटा सब आनंद है
सम भावों में जो है रहते
उन्हें परमानंद है
समता भाईचारा छूटा
धैर्य क्रोध से पिघले।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलबुधवार (17-8-22} को "मेरा वतन" (चर्चा अंक-4524) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत आभार आपका कामिनी जी।
Deleteचर्चा मंच पर रचना को देखना सदा सुखद अनुभव है।
सस्नेह।
बहुत ही सुन्दर रचना सखी
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका सखी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
Deleteसस्नेह।
समता ही जीवन का सार है
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका अनिता जी आपकी प्रतिक्रिया से रचना को नव उर्जा मिली।
Deleteसादर सस्नेह।
वर्तमान का क्या ख़ूब खा खा खींचा।
ReplyDeleteगज़ब कहा आदरणीय दी 👌
अमरबेल बन करके लटके
वृक्षों का रस सोखे
जिसके दामन से लिपटी हो
उस को ही दे धोखे.. वाह!निशब्द करता बंद।
सादर स्नेह
समर्थन देती प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई प्रिय अनिता।
Deleteहृदय से आभार आपका।
सस्नेह।
ReplyDeleteचहुं दिशा विपदा का डेरा
छूटा सब आनंद है
सम भावों में जो है रहते
उन्हें परमानंद है
समता भाईचारा छूटा
धैर्य क्रोध से पिघले।।
.. बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
बहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी।
Deleteउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
सस्नेह।