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Saturday, 18 May 2019

छाया

दरख्त के साये से

दरख्त के स्याह सायों से
पत्तियों के झरोखे से
झांक रहा चाँद, हो बेताब
खड़ी दरीचे मृगनयनी
नयन क्यों सूने से बेजार
कच उलझे-उलझे
छायी है मुख पर
उदासी की छाया
पुछे चाँद ओ गोरी
पास नही है साजन तेरा
कहां है तेरे पीव का डेरा
बांट तकती सांझ सवेरा
तूझ को चिंताओं ने घेरा
ना हो उदास कहता मन मेरा
आन मिलेगा साजन तेरा
सुन चाँद के बैन
मुख पर रंगत आई
विरहा के बादल से
आस किरण मुस्काई।

      कुसुम कोठारी।

19 comments:

  1. छाया के माध्यम से वियोग रस का अनुपम सृजन कुसुम जी ।

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    1. सस्नेह आभार आपका उत्साह वर्धन के लिये ।

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 18/05/2019 की बुलेटिन, " मजबूत इरादों वाली अरुणा शानबाग जी को ब्लॉग बुलेटिन का सलाम “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. छा गई सखी..
    सादर..

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    1. आपके स्स्नेह के लिए तहे दिल से शुक्रिया सखी।

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  4. बहुत ही बेहतरीन रचना सखी

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    1. सस्नेह आभार सखी आपकी प्रतिक्रिया सदा उत्साह बढाती है ।

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    1. सस्नेह आभार मीना जी ।

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  6. बहतरीन प्रस्तुति ,सादर नमस्कार कुसुम जी

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    1. नमस्कार मित्र जी और ढेर सारा स्नेह आभार।

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  7. सुंदर विरह राग

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    1. बहुत बहुत आभार प्रिय सुधा बहन ।

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  8. This comment has been removed by the author.

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  9. क्या बात है प्रिय कुसुम बहन चाँद की इस सांत्वना से गोरी को चैन मिला | अद्भुत संवाद जो निराशा से भरी गोरी के विकल मन में आशा की किरण जगाता है | चित्रात्मकता का सुंदर संसार रचने में आपकी लेखनी माहिर है | हार्दिक शुभकामनायें भावपूर्ण रचना के लिए सस्नेह

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    1. सस्नेह आभार रेणु बहन आपकी व्याख्यात्मक प्रतिक्रिया से साधारण रचना भी कुछ खास एहसास देने लगती है आपका स्नेह सदा वांछित है।
      सस्नेह।

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  10. बेहतरीन रचना कुसुम

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  11. समय के चक्रव्युव्ह से निकलता मन , मन की गर्भगृह से निकलते शांत शब्द , नीरव गूंज की गूँजरव को प्रतीत करती ध्वनी , यही तो खासियत है आपंके शब्द जाल की
    जमाना भलेही इसे कविता कहे मगर ह्यो5 एक प्रेरणा भरा झरना ।......
    दादा पाटिल

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