परोपजीवी
अनुरंजन से जिनको पोसा
मैला निकला उनका मन
अंदर अंतस कितना काला
उजला बस दिखता था तन।
बना दूसरों को फिर सीढ़ी
लोग सफल हैं कुछ ऐसे
जोड़-तोड़ के योग लगा
नीव खोदते दीमक जैसे
हरियल तरुवर को नागिन सा
अमर बेल का आलिंगन।।
आत्म हनन कर निज भावों का
शोषण के कारज सारे
ऐसे-ऐसे करतब करते
लज्जा भी उनसे हारे
लिप्सा चढ़ती शीश स्वार्थ की
सिक्कों की सुनते खन-खन।।
आश्रित जिन पर उनको ठगते
सत्व सार उनका खींचे
कर्तव्यों की करें अपेक्षा
बने कबूतर दृग मीचे
पूरे जग में भरे हुए हैं
ऐसे लोलुप अधमी जन।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०५ -०२-२०२३) को 'न जाने कितने अपूर्ण प्रेम के दस्तक'(चर्चा-अंक-४६३९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी हृदय से आभार आपका रचना को चर्चा में स्थान देने के लिए।
Deleteसादर सस्नेह।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका आदरणीय।
Deleteपूरे जग में भरे हुए हैं,
ReplyDeleteऐसे लोलुप अधमी जन.
नमस्ते 🙏❗️बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ❗️
मेरी आवाज में संगीतबद्ध मेरी रचना 'चंदा रे शीतल रहना' को दिए गए लिंक पर सुनें और वहीं पर अपने विचार भी लिखें. सादर abhaar🌹❗️--ब्रजेन्द्र नाथ
जी हृदय से आभार आपका आदरणीय।
Deleteआपका गीत पढ़ा और सुना मोहक सृजन सरस प्रस्तुति।
बहुत सुंदर रचना 👌👌
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका।
Deleteसस्नेह।
आदरणीया कुसुम कोठरी जी ! प्रणाम !
ReplyDeleteकलियुगी जीवन का कटु पर सत्य दर्शन कराती पंक्तियों में छंद का सुन्दर समायोजन बन पड़ा है !
श्रेष्ठ रचना के लिए बहुत अभिनन्दन !
आपको शिवरात्रि महापर्व की अनेक शुभकामनाये !
हर हर महादेव !
जी हृदय से आभार आपका तरुण जी आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ।
Deleteसादर।