Thursday, 2 February 2023

परोपजीवी


 परोपजीवी


अनुरंजन से जिनको पोसा

मैला निकला उनका मन 

अंदर अंतस कितना काला

उजला बस दिखता था तन।


बना दूसरों को फिर सीढ़ी

लोग सफल हैं कुछ ऐसे

जोड़-तोड़ के योग लगा

नीव खोदते दीमक जैसे

हरियल तरुवर को नागिन सा

अमर बेल का आलिंगन।।


आत्म हनन कर निज भावों का

शोषण के कारज सारे

ऐसे-ऐसे करतब करते

लज्जा भी उनसे हारे

लिप्सा चढ़ती शीश स्वार्थ की 

सिक्कों की सुनते खन-खन।।


आश्रित जिन पर उनको ठगते

सत्व सार उनका खींचे

कर्तव्यों की करें अपेक्षा 

बने कबूतर दृग मीचे

पूरे जग में भरे हुए हैं 

ऐसे लोलुप अधमी जन।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

10 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०५ -०२-२०२३) को 'न जाने कितने अपूर्ण प्रेम के दस्तक'(चर्चा-अंक-४६३९) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. जी हृदय से आभार आपका रचना को चर्चा में स्थान देने के लिए।
      सादर सस्नेह।

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  2. बहुत सुंदर

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    1. जी हृदय से आभार आपका आदरणीय।

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  3. पूरे जग में भरे हुए हैं,
    ऐसे लोलुप अधमी जन.
    नमस्ते 🙏❗️बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ❗️
    मेरी आवाज में संगीतबद्ध मेरी रचना 'चंदा रे शीतल रहना' को दिए गए लिंक पर सुनें और वहीं पर अपने विचार भी लिखें. सादर abhaar🌹❗️--ब्रजेन्द्र नाथ

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    1. जी हृदय से आभार आपका आदरणीय।
      आपका गीत पढ़ा और सुना मोहक सृजन सरस प्रस्तुति।

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  4. बहुत सुंदर रचना 👌👌

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    1. जी हृदय से आभार आपका।
      सस्नेह।

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  5. आदरणीया कुसुम कोठरी जी ! प्रणाम !
    कलियुगी जीवन का कटु पर सत्य दर्शन कराती पंक्तियों में छंद का सुन्दर समायोजन बन पड़ा है !
    श्रेष्ठ रचना के लिए बहुत अभिनन्दन !
    आपको शिवरात्रि महापर्व की अनेक शुभकामनाये !
    हर हर महादेव !

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    1. जी हृदय से आभार आपका तरुण जी आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ।
      सादर।

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