गीतिका :
221 2122 221 2122.
पर्यावरण और गर्मी
सविता धधक रहा है जीवन व्यथित हुआ अब।
हैं नीर रिक्त सरवर सूखे कुएँ सरित सब।।
अंगार से लगे है हर पेड़ पात जलता।
लू के बहे थपेड़े ज्यों धूल संग करतब।।
तन संकुचित धरित्री लो गोद आज उजड़ी।
धर मेह दे नहीं तो होगी हरित धरा कब।।
धर=बादल
है भूमि रत्नगर्भा पर अंबु चाहती नित।
सिंचन बिना कुँवारी कर स्नान सरसती जब।।
झूठी कथा नहीं सच कारण मनुज तुम्हीं हो।
पर्यावरण बचाओ भू पर खनक बचे तब।।
हो इंद्र देव खुश तो फिर वृष्टि गीत गाती।
गिर तापमान जाता वन मोर नाचता अब।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सुंदर काव्य पंक्तियां
ReplyDeleteबेहतरीन रचना ... पर्यावरण का संतुलन आज नहीं तो कल इंसान को बैठाना ही होगा ...
ReplyDelete