शरद गमन
भानु झाँके बादलों से
शीत क्यों अब भीत देती
वो चहकती सुबह जागी
नव प्रभा को प्रीत देती।।
लो कुहासा भग गया अब
धूप ने आसन बिछाया
ऐंद्रजालिक ओस ओझल
कौन रचता रम्य माया
पर्वतों ने गीत गाए
ये पवन संगीत देती।।
मोह निद्रा त्याग के तू
छोड़ दे आलस्य मानव
कर्म निष्ठा दत्तचित बन
श्रेष्ठ तू हैं विश्व आनव
उद्यमी अनुभूतियाँ ही
हार में भी जीत देती।।
बीज माटी में छिपे से
अंकुरण को हैं मचलते
नेह सिंचित इस धरा पर
मानवों के भाग्य पलते
और तम से जो डरा हो
सूर्य किरणें मीत देती।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार 16 अप्रैल 2023 को 'बहुत कमज़ोर है यह रिश्तों की चादर' (चर्चा अंक 4656) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
जी हृदय से आभार आपका चर्चा मंच पर रचना को रखने के लिए।
Deleteलाजवाब प्रस्तुति।
ReplyDeleteजी बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।
Deleteसादर।
बीज माटी में छिपे से
ReplyDeleteअंकुरण को हैं मचलते
नेह सिंचित इस धरा पर
मानवों के भाग्य पलते
और तम से जो डरा हो
सूर्य किरणें मीत देती।।
सकारात्मक भाव लिए सुंदर रचना।
सस्नेह आभार आपका जिज्ञासा जी।
Deleteसृजन सार्थक हुआ।
सुन्दर गीत
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 25 एप्रिल 2023 को साझा की गयी है
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
वाह ......लाज़बाब
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका दी।
Deleteसादर सस्नेह।
बीज माटी में छिपे से
ReplyDeleteअंकुरण को हैं मचलते
नेह सिंचित इस धरा पर
मानवों के भाग्य पलते
कर्म की प्रधानता एवं परिश्रम से अपना भाग्य निर्मित करना...इतना बड़ा संदेश उत्कृष्ट नवगीत में
वाह!!!
जी हृदय से आभार आपका सखी।
Deleteसस्नेह।