भाव शून्य कैसी कविता!
बिन रसों के काव्य सूना
टिक सके आदित्व कैसे।
छू न पाये जो हृदय तो
हो सृजन व्याप्तित्व कैसे।
रिक्त जल से गागरी हो
प्यास फिर बाकी रहेगी
बात अंतर की भला वो
लेखनी कैसे कहेगी
भाव से कविता विमुख हो
पा सके अस्तित्व कैसे।
गीत में संगीत होगा
तार झनके वाद्य के जब
बज उठी हो झाँझरे तो
मन मयूरा नाचता तब
रागिनी बिन राग फीका
लेख पर दायित्व कैसे।।
शिल्प खण्ड़ित भाव बिखरे
मुक्त हो उड़ते हुए से
हो विपाकी सा सृजन नित
तार सब जुड़ते हुए से
क्लांत हो जो व्यंजनाएँ
छंद का स्वामित्व कैसे।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सच है बिना भाव की कैसी कविता
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
आत्मीय आभार आपका कविता जी।
Deleteरचना को स्नेह मिला ।
सस्नेह।
लाजवाब रचना, हमेशा की तरह।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका।
Deleteसादर।
बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका।
Deleteसादर।
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका वनिता जी।
Deleteब्लॉग पर सदा स्वागत है आपका।
ReplyDeleteशिल्प खण्ड़ित भाव बिखरे
मुक्त हो उड़ते हुए से
हो विपाकी सा सृजन नित
तार सब जुड़ते हुए से
क्लांत हो जो व्यंजनाएँ
छंद का स्वामित्व कैसे।।..
वाह!!
सटीक अभिव्यक्ति।
सस्नेह आभार आपका जिज्ञासा जी।
Deleteरचना को समर्थन मिला।
सस्नेह।
भाव से कविता विमुख हो
ReplyDeleteपा सके अस्तित्व कैसे।शब्द भाव की सूंदर वेणी !!
सुंदर सकारात्मक ऊर्जा देती प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार।
Deleteसस्नेह।
अर्थपूर्ण और सुंदर गीत
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका आदरणीय।
Deleteसादर।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका सखी उत्साह वर्धन हुआ।
Deleteसस्नेह।
वाह ! सुन्दर और पहाड़ी नदी का सा प्रवाहपूर्ण गीत !
ReplyDeleteआत्मीय आभार आपका आदरणीय, रचना पसंद आई।
Deleteरचना को आशीर्वाद मिला।
सादर।
जी हृदय से आभार आपका।
ReplyDeleteचर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए।