गीतिका:
अद्भुत प्रकृति
आसमान अब झुका धरा भरी उमंग से।
लो उठी अहा लहर मचल रही तरंग से।।
शुचि रजत बिछा हुआ यहाँ वहाँ सभी दिशा।
चाँदनी लगे टहल-टहल रही समंग से।।
वो किरण लुभा रही चढ़ी गुबंद पर वहाँ।
दौड़ती समीर है सवार हो पमंग से।।
रूप है अनूप चारु रम्य है निसर्ग भी ।
दृश्य ज्यों अतुल दिखा रही नटी तमंग से।।
जब त्रिविधि हवा चले इलय मचल-मचल उठे।
और कुछ विशाल वृक्ष झूमते मतंग से।
वो तुषार यूँ 'कुसुम' पिघल-पिघल चले वहाँ।
स्रोत बन सुरम्य अब उतर रहे उतंग से।।
इलय/गतिहीन
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
वाह
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका आदरणीय।
Deleteअति.मनमोहक रचना दी शब्द शिल्प का तो जवाब नहीं। बेहतरीन अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर प्रणाम दी।
सस्नेह।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २२ सितंबर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हृदय से आभार आपका श्वेता।
Deleteपाँच लिंकों पर आना सदा सुखद अहसास है।
सादर सस्नेह।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका पम्मी जी आपको देख मन प्रफुल्लित हुआ।
Deleteखूबसूरत रचना
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसृजन सार्थक हुआ।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteजी सस्नेह आभार आपका मधुलिका जी ब्लॉग पर सदैव स्वागत है आपका।
Deleteसस्नेह।
अत्यंत हृदयस्पर्शी रचना
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका।
Deleteसादर।
सुन्दर शब्दचयन व कलात्मकता से परिपूर्ण
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका सृजन सार्थक हुआ।
Deleteसादर।
संस्कृत निष्ठ शब्दों का सौंदर्य देखने ही बनता है, सुंदर सृजन!
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका अनिता जी, सृजन को ऊर्जा प्रदान करती सुंदर प्रतिक्रिया।
ReplyDeleteसस्नेह