कल तक बरखा मनभावन
ये सिर्फ कहानी नही
जगत का गोरख धंधा है
कभी ऊपर कभी नीचे
चलता जीवन का पहिंया है।
कल तक बरखा मन भावन
आज बैरी बन सब बहा रही
टाप टपरे टपक रहे निरंतर
तृण,फूस झोपड़ी उजाड़ रही।
सिली लकड़ी धुआं धुंआ हो
बुझी बुझी आंखें झुलसा रही
लो आई बैरी बौछार तेजी से
अध जला सा चूल्हा बुझा रही
काम नही मिलता मजदूरों को
बैरी जेबें खाली मुह चिढा रही
बच्चे भुखे,खाली पेट,तपे तन
मजबूर मां बातों से बहला रही।
कुसुम कोठारी।
ये सिर्फ कहानी नही
जगत का गोरख धंधा है
कभी ऊपर कभी नीचे
चलता जीवन का पहिंया है।
कल तक बरखा मन भावन
आज बैरी बन सब बहा रही
टाप टपरे टपक रहे निरंतर
तृण,फूस झोपड़ी उजाड़ रही।
सिली लकड़ी धुआं धुंआ हो
बुझी बुझी आंखें झुलसा रही
लो आई बैरी बौछार तेजी से
अध जला सा चूल्हा बुझा रही
काम नही मिलता मजदूरों को
बैरी जेबें खाली मुह चिढा रही
बच्चे भुखे,खाली पेट,तपे तन
मजबूर मां बातों से बहला रही।
कुसुम कोठारी।
मर्मस्पर्शी रचना कुसुम जी
ReplyDeleteमन को झिंझोड़ती रचना ..👌👌👌👌
ReplyDeleteमार्मिक
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteये सिर्फ कहानी नही
ReplyDeleteजगत का गोरख धंधा है
.
यह मात्र एक पंक्ति नहीं, बल्कि एक ऐसा बयान है, जो चीख चीखकर फूस की झोपड़ी और ठंडे चूल्हे की दास्तान सुना रहा है। बहुत ही उत्तम सृजन... वाह
वाह सखी क्या खूब लिखा 👌👌👌
ReplyDeleteअति कभी अच्छी नही होती
बहुत सार्थक रचना 🙏🙏🙏
प्रिय कुसुम बहन -- सुविधा सम्पन्न लोगों के लिए वर्षा मनभावन है तो इससे विहीन लोगों के लिए एक आपदा , जो भयावहता लाती है | झोपडी वालों को क्या कभी वर्षा मनमोहक लग सकती है ? बहुत भावपूर्ण और संवेदनशील रचना के लिए हार्दिक बधाई |
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