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Thursday 30 September 2021

आज नया इक गीत लिखूँ


 आज नया इक गीत लिखूँ


गूँथ-गूँथ शब्दों की माला 

आज नया इक गीत लिखूँ मैं।।


वीणा का जो तार न झनके 

सरगम की धुन पंचम गाएँ

मन का कोई साज न खनके

नया मधुर सा राग सजाएँ

कुछ खग के कलरव मीठे से

पीहू का संगीत लिखूँ मैं।।


हीर कणों से शोभित अम्बर

ज्यों सागर में दीपक जलते

टिम-टिम करती निहारिकाएं

क्षितिज रेख जा सपने पलते

चंद्रिका से ढकी वसुंधरा

चंद्र प्रभा की प्रीत लिखूं मैं।।


मिहिका से अब निकल गया मन

धूप सुहानी निकल रही है

चटकन लागी चंद्र मल्लिका

नव दुल्हन का रूप मही है

मुखरित हो संगीत भोर का

तम पर रवि की जीत लिखूं मैं।।


             कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'।

Friday 24 September 2021

स्मृति पटल पर गाँव

स्मृति पटल पर गाँव 


बैठ कर मन बाग मीठी 

मोरनी गाने लगी है 

हर पुरानी बात फिर से 

याद अब आने लगी है।।


कर्म पथ बढ़ते रहे थे 

छोड़ आये सब यहाँ हम 

बात अब लगती अनूठी 

सोच में अभिवृद्धि थी कम 

स्मृति पटल पर गाँव की वो

फिर गली छाने लगी है।।


भ्रान्ति में उलझे शहर के 

त्याग सात्विक ग्राम जीवन 

यूँ भटकते ही चले फिर 

सी रहे हर जून सीवन 

कैद छूटी बुलबुलें फिर

उड़ वहाँ जाने लगी है।।


कोड़ियों से खेल रचते 

धूल में तन थे महकते 

पाँव में चप्पल न जूते 

दौड़ते बेसुध चहकते 

डूबकर कब रंग गागर  

फाग लहराने लगी है।।


 कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'।

 

Wednesday 22 September 2021

निज पर विश्वास

निज पर विश्वास


निजता का सम्मान

निराशा में जिसने खोया।

राही भटका राह

निशा तम में घिरकर सोया।।


रे चेतन ये सोच

जगत में तू उत्तम कर्ता

पर जो खेले खेल 

वही तो होता है भर्ता

भावों का विश्वास 

जहाँ भी टूटा वो रोया।


निज भीतर की शक्ति

अरे जानो तोलो झांको

अज्ञानी मृग कौन

तुम्हीं सृष्टा हो मन आंको

जागेगा अब भाग

विवेकी का दाना बोया।।


दृष्टा बनके देख

अजा का अद्भुत है लेखा

जिसने लेली सीख

बदल ली हाथों की रेखा

उलझा रेशम छोड़

बटे तृण में मोती पोया।।


अजा=प्रकृति


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

Saturday 18 September 2021

नीरव मुखरित


 

नीरव मुखरित


खिलते उपवन पात

महक मकरंदी बहजाती।

फूलों की रस गंध

सखे अलि को लिखती पाती।


शोभा कैसी आज 

धरा ओढ़े चुनरी धानी

मधुमासी है वात

जलाशय कंचन सा पानी

मोहक रूपा काल

बहे नदिया भी बलखाती।।


चंचल मन के भाव

झनक स्वर में बोले पायल 

सुन श्यामा की राग

पपीहा होता है घायल 

मधुरिम  झीना हाथ

हवा धीरे से सहलाती।।


छेड़े मन के राग

सुरों की मुरली बहकी सी

नीरव तोड़े मौन

पुहुप की डाली महकी सी।

घर के पीछे बड़बेर

सुना बेरों से बतियाती।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday 16 September 2021

अवसरवादी


 अवसरवादी


अवसर का सोपान बना कर 

समय काल का लाभ लिया। 

रीति नीति की बातें थोथी 

निज के हित का घूँट पिया।


कौन सोचता है औरों की 

अपना ही सिट्टा सेके 

झुठी सौगंध तक खा जाते 

हाथों गंगाजल लेके 

गूदड़ कर्मों की अति भारी 

जाने क्या-क्या पाप सिया।।


क्या होता तो दिखता क्या है 

भरम यवनिका डाल रहे 

लाठी वाले भैंस नापते 

निर्बल अत्याचार सहे 

दूध फटे का मोल लगाया 

ऐसा भी व्यापार किया।। 


पोल ढोल की छुपी रहे है 

लगती जब तक चोट नही  

खुल जाये तो बात बदल दे 

जैसे कोई खोट नहीं 

फटे हुए पर खोल चढ़ाकर 

अनृत आवरण बाँध दिया।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday 14 September 2021

उपेक्षिता


एक दिवस हिन्दी लगे, गंगा जल का पान।

सच्चे मन से आँकिए, कहाँ है इसकी आन।।


 उपेक्षिता


देव नागरी भाषा उत्तम

गुणी जनो ने भी गुण गाया।

अनंत शब्द भंडार सुशोभित

अलंकार से निखरी काया।


विविध रंग की रंगोली में

शुभ्र वर्ण लेकर खिलती है

अभ्यागत को गले लगा कर

सागर में गंगा मिलती है

संस्कृत ने जो पौधा सींचा

उस हिन्दी की शीतल छाया।।


दो अक्षर भी भाव समेटे

सौम्य सुघड़ सुंदर गहरे

विश्व कोष में और कौनसी 

भाषा इसके आगे ठहरे 

आंग्ल मोहिनी पाश फसा जन

निजता छोड़ झूठ भरमाया।।

 

दाँव घात में ऐसे उलझी

शैशव से न तरुण हो पाई

प्राची उगते बाल सूर्य पर

काल घटा गहरी लहराई 

देव वंशजा भाषा मंजुल

पूरा मान कहाँ कब पाया।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

Saturday 11 September 2021

स्वयं पर शासन


 

स्वयं पर शासन


निज पर जो शासन करते हैं

क्षुद्र भाव का करते सारण

शुभ्र गुणों को विकसित करते

जिससे सुरभित होते भू कण।


आदर्शों को रखें सँभाले

मणियों जैसे अमूल्य विचार

परंपरा में देते जग को

मंजु शुद्ध समदृष्टि आचार

किंचित लेश मात्र भी विचलित

दृश्य नहीं जो करते धारण।।


स्वार्थ त्याग की करे तपस्या  

राग द्वेष औ माया तजकर 

पुरुषार्थ का करते संकल्प 

आत्मानंद मार्ग में रमकर 

ऐसी संत स्वभावी आत्मा

सभी दुखो का करे निवारण।।


साम्यभाव हो दृष्टिपथ जिनका

परहित अर्पित भाव उच्चतम

वसुधा पर प्रकाश फैलाते 

विदेही युगवीर पुरुषोत्तम

बंधन से वे मुक्त सदा जो

निस्पृहता का करे आचरण।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday 7 September 2021

श्याम मोहिनी


 श्याम मोहिनी


रजत चाँद की निर्मल आभा

लो लहर पलक पर लहरी हैं ।


वो झांक रहे हैं इधर उधर

टिमटिम कर अंबक मटकाते

नीलाम्बर की बाहों में घिर

मणिकांत मणी से मनभाते

दौड़ धूप से क्लांत शिथिल अब

निर्निमेष आँखें ठहरी है।।


रजनी कर श्रृंगार निकलती

रुनझुन पायल झनकाती

श्याम मोहिनी वो सुकुमारी

नीले कंगन खनकाती

भ्रमण करे जब निशा सुंदरी

तारक दल जैसे पहरी है।।


अलंकार नित नव घड़वाती

रंग रूप उजला सा भरने 

पर जब तक उजली वो होती 

काल नवल सा लगता झरने

जब चलती है धीरे लगता

चाल चले कोई गहरी है।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday 5 September 2021

श्वास रहित है तन पिंजर


 श्वास रहित है तन पिंजर 


तड़प मीन की मन मेरे 

श्याम नही अंतर जाने 

गोकुल छोड़़ जावन कहे

बात नेह की कब माने।


अमर लतिका स्नेह लिपटी

छिटक दूर क्यों कर जाए।

बिना मूल मैं तरु पसरी

जान कहाँ फिर बच पाए।


श्वास रहित है तन पिंजर 

साथ सखी देती ताने।

तड़प मीन की मन मेरे 

श्याम नही अंतर जाने ।।


बिना चाँद चातक तरसे

रात रात जगता रहता

टूट टूट मन इक तारा

सिसक सिसक आहें भरता।


कौन सुने खर जग सारा।

बात बात देता ताने।

तड़प मीन की मन मेरे 

श्याम नही अंतर जाने ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday 1 September 2021

कल्पना और कल्पक


 नवगीत मेरा।

कल्पना और कल्पक


कुछ छुपे अध्याय भी है

कह रही है रात ढलती।

क्यों तमस की कालिमा में

भोर की है आस पलती।


नील आँगन खेलते हैं

ऋक्ष अंबक टिमटिमाते

क्षीर की मंदाकिनी में

स्नान  करके झिलमिलाते

चन्द्र भभका आग जैसे

चाँदनी दिखती पिघलती।।


कल्पना कविता बने तो

क्या नहीं कुछ हो सकेगा

सूर्य भी करवट बदलता

रात शय्या सो सकेगा

स्वर्ण काया पर सुनहरी 

धूप की बाँहें मचलती ।।


औघड़ी है रात रानी

जाग के सौरभ लुटाती 

भोर लाली टोहती तो

स्वागतम पाँखें बिछाती

देह से आभूषणों को

ज्यों विरह में वो अहलती ।।


अहलती =हिलना.


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'