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Wednesday 30 May 2018

कृषक की मनो व्यथा

एक कृषक की वेदना!!

पूछा किसी ने खेतीहर से
जीवन इतना अमूल्य है
आत्मदाह क्यों करते हो
पुरषार्थ करते जावो
फल अवश्य मिलेगा
ऐसा निती कहती है
कहा उसने कुछ ऐसा
आसमान डोल गया बोला
मिट्टी जब प्यासी होती है
वो फल नही देती
हम तकते रहते बादलों को
वो बिन बरसे निराश कर चले जाते
अपने आंसू और पसीने से
इस धरा को सींचते हम
पर वो बीज के अंकुरण को
पूरा नही पड़ता ,फिर क्या करें
कैसा पुरषार्थ करें
अपना लहूं भी सींच दें
तो भी धरती की प्यास नही बुझती
बैल भूखे मरे जाते हैं
तो ये पुरषार्थ करूं कि
अपने नन्हों और आश्रितों
का निवाला छीन बैलों को खिला दूं
महाजन के पास गिरवी पड़े
खेत और कच्चे घर
अब बीज और ट्रेक्टर के लिऐ
पैसे कंहा से लाऊं
क्या बेच दूं खुद को
जब लहू सींचना है
घर वालों, बैलों को
भूख से तड़पते देखना है
खुद को बेचना है
तो क्या जीवन क्या मृत्यु !
इसलिये मरने का पुरषार्थ करता हूं
सुनने वालों की आंख मे आंसू होते होंगें
हमने तो आंसू भी सींच दिये खेतो मे
आंखें भी रीती दिल भी रीता
जिन्दगी बन गई है सौत
इसलिये अपनाते हैं मौत
इसलिये अपनाते हैं मौत।।
        कुसुम कोठारी।

Monday 28 May 2018

मुसाफिर अंजान डगर का

एक मुसाफिर अंजान डगर का
धुंधली सी भीगी सी राहें
ना कोई साथी ना ही कारवां ।

"जोदी तोर डाक सुने केउ ना आसे
 तोबे ऐकला चोलो रे"

ले ऐसा विश्वास
चला पथिक,
फिसलन कांटे
रोड़े भरपूर,
फिर भी ना हारा
मतवाला,
चला चला
वो चला निरंतर,
अथक अटक
अबाध अग्रसर,
सलिला सा खुद
राह बनाता,
गीत जीत के गाता
गुनगुनाता,
अनुगूंज हृदय मे
स्वप्न जय की
धुन जगी ज्यों
विश्व विजय की ।

ऐसे मुसाफिर मंजिल पाते निश्चित
कौन रोक पाया विजय अपराजित 
एक मुसाफिर अंजान डगर का  ।

               कुसुम कोठारी।

Friday 25 May 2018

हाये रे जेष्ठ की तपन ( तपिश )

तपिश सूरज की बेशुमार
झुलसी धरती
मुरझाई लताऐं
सुलगा अंबर
परिंदों को ठौर नही
प्यासी नदिया
कृषकाय झरने
तृषित  घास
पानी की आस
सूनी गलियां
सूने चौबारे
पशु कलपते
बंद है दरवाजे
गरमी में झुलसता
कर्फ्यू सा शहर
फटी है धरा
किसान लाचार
लहराते लू के थपेड़े
दहकती दोपहरी
सूखे कंठ
सीकर मे डूबा तन
वस्त्र  नम
धूप की थानेदारी
काम की चोरी
आंचल मे छुपाये
मुख ललनाऐं
गात बचाये
बिन बरखा
हाथों मे छतरी
रेत के गुबार
आंखो मे झोंके
क्षरित वृक्ष
प्यासे कुंए
बिकता पानी
फ्रिज ऐसी के ठाठ
रात मे छत पर
बिछती खाट
बादलों की आस
बढती प्यास
सूखते होठ
जलता तन
सूरज बेरहम
हाय रे  जेष्ठ की तपन।।
        कुसुम कोठारी।

 कुसुम कोठारी।

तपिश

अगन बरसती आसमां से जाने क्या क्या झुलसेगा
ज़मीं तो ज़मीं खुद तपिश से आसमां भी झुलसेगा

जा ओ जेठ मास समंदर में एक दो डुबकी लगा
जिस्म तेरा काला हुवा खुद तूं भी अब झुलसेगा

ओढ के ओढनी रेत की  पसरेगा तूं बता कहां
यूं बेदर्दी से जलता रहा तो सारा संसार झुलसेगा

देख आ एक बार किसानों की जलती आंखों में
उजडी हुई फसल में उनका सारा जहाँ झुलसेगा

प्यासे पाखी प्यासी धरती प्यासे मूक पशु बेबस
सूरज दावानल बरसाता तपिश से चांद झुलसेगा

ना इतरा अपनी जेष्ठता पर समय का दास है तूं
घिर आई सावन घटाऐं फिर भूत बन तूं झुलसेगा।
                                 कुसुम कोठारी।

Tuesday 22 May 2018

सपनों का गांव

सपनो का एक
गांव बसालें
झिल मिल
तारों से सजालें
टांगें सूरज
ओंधा टहनी पर
रखें चाॅद
सन्दुकची मे बंद कर
रोटी के कुछ
झाड लगा लें
तोड रोटिया
जब चाहे खा लें
सोना चांदी
बहता झर झर
पानी
तिजोरियों के अंदर
टाट पे पैबंद
मखमल का
उडे तन उन्मुक्त
पंछियों सा।
          कुसुम कोठारी ।

Monday 21 May 2018

यायावर

ना मंजिल ना आशियाना पाया
वो  यायावर सा  भटक गया

तिनका तिनका जोडा कितना
नशेमन इ़खलास का उजड़ गया

वह सुबह का भटका कारवाँ से
अब तलक सभी से बिछड़ गया

सीया एहतियात जो कोर कोर
क्यूं कच्चे धागे सा उधड़ गया।।

         कुसुम कोठारी।

Saturday 19 May 2018

उठ के बस एक दीप जलाओ

निशा काली है घनी
उठ के बस एक दीप जलाओ

ख्वाब महल जो टूट गये हों
छोटा सा एक नीड़  बनाओ

सागर प्यास नही बुझाता
भर अंजली प्यास बुझाओ

नही हो हिस्से मे महफिल तो
मधुर कोई एक गीत ही गाओ

पथ मे ना हो फूल बिछे तो
मुस्कानो के फूल खिलाओ

चमन नही हो हरा भरा तो
छोटी सी एक पोध लगाओ

अमन चैन से रहना है तो
स्नेह विश्वास की ज्योत जलाओ।
             कुसुम कोठारी।

Thursday 17 May 2018

रे मानव तूं मूढ़ मते

हे मूरख नर
महा अज्ञानी
क्या कर रहा
तूं अभिमानी
अपने नाश का
बीज बो रहा
क्यों कहते
तूझे सुज्ञानी
आज तक विज्ञान
खोज मे
एक बात तो साफ हुई
कितने ग्रह उपग्रह है
लेकिन
इस धरा को छोड,
ना है मानव कहीं
तूं इसी धरा को
रहा उजाड़
दोहन करता,
प्रदूषित करता
वन  उजाड़ता ,
पेड़ काटता
अपने सर्वनाश का
खुद इंतजाम करता
जब ये धरा न होगी
कहां रहेगा तूं
सोच और कर मनन
क्यों हाथ अपने काट रहा
तरसेगा स्वच्छ हवा को
छटपटाता सा जीवन
सच क्षण भंगुर होगा
चेत चेत रे मूढ़ मते
अंत तुझे पछताना होगा।
       कुसुम कोठारी।

Wednesday 16 May 2018

एक वृक्ष की मनो व्यथा

मां को काट दोगे
माना जन्म दाता नही है
पर पाला तुम्हे प्यार से
ठंडी छांव दी प्राण वायु दी
फल दिये
पंछीओं को बसेरा दिया
कलरव उनका सुन खुश होते सदा
ठंडी बयार का झोंका
जो लिपटकर उस से आता
अंदर तक एक शीतलता भरता
तेरे पास के सभी प्रदुषण को
निज मे शोषित करता
हां काट दो बुड्ढा भी हो गया
रुको!! क्यों काट रहे बताओगे?
लकडी चहिये हां तुम्हे भी पेट भरना है
काटो पर एक शर्त है
एक काटने से पहले
कम से कम दस लगाओगे।
ऐसी जगह कि फिर किसी
 विकास की भेट ना चढूं मै
समझ गये तो रखो कुल्हाड़ी
पहले वृक्षारोपण करो
जब वो कोमल सा विकसित होने लगे
मुझे काटो मै अंत अपना भी
तुम पर बलिदान करुं
तुम्हारे और तुम्हारे नन्हों की
आजीविका बनूं
और तुम मेरे नन्हों को संभालना
कल वो तुम्हारे वंशजों को जीवन देगें
आज तुम गर नई पौध लगाओगे
कल तुम्हारे वंशज
फल ही नही जीवन भी पायेंगे।
            कुसुम कोठारी।

एक पेड काटने वालों पहले दस पेड़ लगाओ फिर हाथ मे आरी उठाओ

Tuesday 15 May 2018

पत्थरों मे फूल

पत्थरों के सीने से देखो
फूल खिले
कितने कोमल
कितने प्यारे
शिलाऐं दरक गई
नजाकत से
खिलखिला उठी बहार
विराने से
कितना मासूम होता
देखो बचपन
परवाह नही किसी
अंजाम की
खिलौनों से ही नही
खेलता बचपन
हर नई खोज होती
दिल अनजाने की।।
  कुसुम कोठारी ।

Sunday 13 May 2018

कच्चा धान

मन अनुभव  का कच्चा धान
कैसे रांधु मै अविराम ।
कभी तेज आंच जल जल जाऐ
कभी उबल कर आग बुझाऐ
बुझे आंच कच्चा रह जाऐ
रांधु  चावल  उजला
बीच कहीं कंकर दिख जाय।
रे मन पागल बावरे,
धीरज आंच चढा तूं चावल
सदज्ञान घृत की कुछ बुंदे डार
हर दाना तेरा खिल खिल जाय
व्यवहार थाली मे सजा पुरसाय
जो देखे अचंभित हो जाय
कौर खाने को हाथ बढाय।।
         कुसुम कोठारी।

Thursday 10 May 2018

इंतजार, इज़हार, गुलाब....

इजहारे हाल कर बैठे, हाय रे हम ये क्या कर बैठे
दे के सुर्खरु गुलाबों का नजराना, कमाल कर बैठे।

छुपा छुपा था दिल का हाल, सरेआम कर बैठे
इंतजार रहता बेसब्री से उनका, ये भी ऐलान कर बैठे ।

वफा का आलम था दिल मे, वो वफा आम कर बैठे
छुपा था अब्र मे चांद, हटा  चिलमन दीदार कर बैठे।

ख्वाब होता तो छुपा रखते हकीकत थी , जिक्र कर बैठे
कोशिश थी चुप रहते, पर सब कुछ बयां कर बैठे।

देखा किये ख्वाबों मे जिसे, रुबरु आंखें चार कर बैठे
कभी ना की मयकशी , फिर ये कैसा नशा कर बैठे।
                             कुसुम कोठारी।

इंतजार, इज़हार, गुलाब.......

शाहजहां ने बनवाकर ताजमहल
याद मे मुमताज के,
डाल दिया आशिकों को परेशानी मे।

आशिक ने लम्बे "इंतजार" के बाद
किया "इजहारे" मुहब्बत
"नशा" सा छाने लगा था दिलो दिमाग पर
कह उठी महबूबा अपने माही से
कब बनेगा ताज हमारे सजदे मे
डोल उठा! खौल उठा!! बोला
ये तो निशानियां है याद मे
बस जैसे ही होगी आपकी आंखें बंद
बंदा शुरू करवा देगा एक उम्दा महल
कम न थी जानेमन भी
बोली अदा से लो कर ली आंखें बंद
बस अब जल्दी से प्लाट देखो
शुरू करो बनवाना एक "ख्वाब" गाह
जानु की निकल गई जान
कहां फस गया बेचारा मासूम आशिक
पर कम न था बोला
एक मकबरे पे क्यों जान देती हो
चलो कहीं और घुम आते हैं
अच्छे से नजारों से जहाँ भरा है,
बला कब टलने वाली थी
बोली चलो ताज नही एक फ्लैट ही बनवादो
चांद तारों से नही" गुलाबों" से ही सजा दो
"उसे पाने की कोशिशें तमाम हुई सरेआम हुई"
अब खुमारी उतरी सरकार की बोला
छोडो मैं पसंद ही बदल रहा हूं
आज से नई गर्लफ्रेंड ढूंढता हूं
मुझमे शाहजहां बनने की हैसियत नही
तुम मुमताज बनने की जिद पर अडी रहो
देखता हूं कितने और ताजमहल बनते हैं
हम गरीबों की "वफा" का माखौल उडाते है
जीते जी जिनके लिए सकून का
एक पल मय्यसर नही
मरने पर उन्हीं के लिये ताज बनवाते हैं।
                कुसुम कोठारी ।

Wednesday 9 May 2018

जीवन एक परीक्षा

जीवन पल पल एक परीक्षा
महाविलय की अग्रिम प्रतिक्षा।

अतृप्त सा मन कस्तुरी मृग सा
भटकता खोजता अलब्ध सा
तिमिराछन्न परिवेश मे मूढ मना सा
स्वर्णिम विहान की किरण ढूंढता
छोड घटित अघटित खोजता ।
जीवन पल पल एक परीक्षा...

महासागर के महा द्वंद्व सा
जलता रहता बङवानल सा
महत्वाकांक्षा की धूंध मे घिरता
खुद से ही कभी न्याय न करता
सृजन मे भी संहार ढूंढता ।
जीवन पल पल एक परीक्षा...

कभी होली भरोसे की जलाता
अगन अबूझ समझ नही पाता
अव्यक्त लौ सा जलता जाता
कभी मन प्रस्फुटित दिवाली मनाता
खुश हो मलय पवन आस्वादन करता ।
जीवन पल पल एक परीक्षा....

भ्रमित मन की रातें गहरी जितनी
उजाला दिन का उतना कमतर
खण्डित आशा अश्रु बन बहती
मानवता क्षत विक्षत चित्कार करती
मन आकांक्षा अपूर्ण अविचल रहती।
जीवन पल पल एक परीक्षा  ....

                     कुसुम कोठारी।

Tuesday 8 May 2018

हल की खिडकीयां

मुश्किल हो कैसी भी दीवारें न चुन लो
हल की कुछ छोटी खिड़कियां खोल लो

नेकियाँ करते चलो दरिया मे डाल दो
जीवन को बहती मौजों मे ढाल दो

जहाँ दिखावे करने तय हो तो करते चलो
जहाँ मौन से काम हो वहां मौन रहो

हौसलों की कस्तियों पर सवार चलो
छोटी सी जिंदगी है भाई हंसी खुशी जीलो।
            कुसुम कोठारी।

Sunday 6 May 2018

इंतजार की बेताबी

इंतजार की बेताबी

अंधेरे से कर प्रीति
उजाले सब दे दिये
अब न ढूंढना
उजालो मे हमे कभी।

हम मिलेंगे सुरमई
शाम  के   घेरों मे
विरह का आलाप ना छेड़ना
इंतजार की बेताबी मे कभी।

नयन बदरी भरे
छलक न जाऐ मायूसी मे
राहों पे निशां ना होंगे
मुड के न देखना कभी।

आहट पर न चौंकना
ना मौजूद होंगे हवाओं मे
अलविदा भी न कहना
शायद लौट आयें कभी।

       कुसुम कोठारी ।

Saturday 5 May 2018

टुटा पत्ता

मिसाल कोई मिलेगी
उजडी बहार मे भी
उस पत्ते सी
जो पेड़ की शाख मे
अपनी हरितिमा लिये डटा है
अब भी।
हवाऔं की पुरजोर कोशिश
उसे उडा ले चले संग अपने
कहीं खाक मे मिला दे
पर वो जुडा था पेड के स्नेह से
डटा रहता हर सितम सह कर
पर यकायक वो वहां से
टूट कर उड चला हवाओं के संग
क्योंकि पेड़ बोल पड़ा उस दिन
मैने तो प्यार से पाला तुम्हे
क्यों यहां शान से इतराते हो
मेरे उजड़े हालात का उपहास उड़ाते हो
पत्ता कुछ कह न पाया 
शर्म से बस अपना बसेरा छोड़ चला
वो अब भी पेड के कदमो मे लिपटा है
पर अब वो सूखा बेरौनक हो गया
साथ के सूखे पुराने पत्तों जैसा
उदास
पेड की शाख पर वह
कितना रूमानी था।
                कुसुम कोठारी।