Followers

Sunday 27 February 2022

मुद्रित यादें


 मुद्रित यादें


जीवन की आपा धापी में

दूर देश छबि एक दिखी

साधन सीमित होते लेकिन

लोग हुआ करते स्वधिती।।


बाली की चौगान घनेरी

दादा की एक खटोली

श्याम खरल में घोटा चलता 

जड़ी बूटियों की थैली 

स्मृतियों की गुल्लक से निकली

मुद्रित यादें नाम लिखी।।


लम्बी तीखी मूँछ कटीली

ठसक भरी बोली बोले

लगा ठहाका ऐसे हँसते

ज्यूँ खनखन सिक्के तोले

बैठे दिखते घर चौबारे 

मन भावों से जगत हिती।।


लकड़ी वाला चूल्हा चंचल

चटक-चटक जलता रहता

घूँघट डाले माँ काकी का

हाथ शीघ्र चलता रहता

सौंधी खुशबू वाली होती

रोटी भी अंगार सिकी।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday 24 February 2022

दिन उगे चाली पणिहारयाँ


 दिन उगे चाली पणिहारयाँ


उगती भोर सूरज चढ़तो

ऊँची पोळाँ पर रमतो।

सोनलिया धोरा़ँ रे ऊपर

खूब गुळाट्या भरतो।


आई  आळी भोर सुहानी 

हिलमिल भर ल्यावाँ पानी

पगलाँ री रिमझोल्या झमके

हाथा चूड़ो चम-चम चमके

राख ईंढूनी शीश बोरलो

झुटना झाला देवतो।


पनघट ऊपर खड्यो बटोही

भर घड़लो ऊँचवादे मोही

लें पानी नखराली चाली

छलक-छलक घड़लो खाली

सोला तो  सिंगार भिजिया

लाल चुनरिया पानी झरतो।।


रतनार वरण की गुलनारी 

आँख्याँ लाजा़ँ मरती भारी

लाल सिंदूरी रंग छलकतो

दप-दप रूप मलकतो

नैणा कजरी रेख पसरती 

 बिंब देख दर्पण मरतो।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday 20 February 2022

धानी धरा


 धानी धरा


भाग बदले टहनियों के

झाँकती कोंपल लचीली

दूब फूटी मेदिनी से

तन खड़ी हैं वो गहीली।


शीत का उजड़ा घरौंदा

धूप मध्यम है बसंती

खग विहग लौटे प्रवासित

जल मुकुर सरिता हसंती

फूल खिल उस डग उठे अब

राह  कल तक थी कटीली।।


रंग धानी हो रही है

भूधरा की देह श्यामल

पौध लजकाणी झुकी सी

कोंपले नव मंजु झिलमिल

लाजमय लें ओढ़नी वो

पीत रंगों की सजीली।।


खिल उठा तारुण्य हर दिशि

झूमता मौसम पुकारे

राग गाती है समीरा

रंग विधि के वाह न्यारे

तन मुदित मन भा रही है

आज बासंती रसीली।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday 18 February 2022

विवक्त!


 विविक्त!


जेल में दो कैदी एक साथ एक बहुत गंभीर बिमारी से बाहर आया ही था कमजोरी और खिन्नता से भरा, दूसरा भी हर रोज कुछ शारीरिक पीड़ा से गुजर रहा था।

दोनों साथ रह कर अपना समय एक दूसरे के सहारे बीता रहे थे, दोनों को एक-दूसरे की आदत हो गई गंभीर कैदी हर रोज प्रार्थना करता दूसरे कैदी की सजा उसकी सजा से पहले खत्म न हो...

दूसरे को सश्रम कारावास के दौरान दूसरे कैदियों के साथ काम करते हुए अचानक कोरोना

ने जकड़ लिया।

अब उसे वहाँ से निकाल दूसरे बैरक में डाल दिया गया।

पहला कैदी फूट-फूट कर रो पड़ा भगवान से शिकायत करने लगा मेरी इतनी सी प्रार्थना नहीं सुनी तूने हे निर्मोही एक साथी था उसे भी दूर कर दिया।

तभी सरसराती आवाज आई  तूने कहा उसे मैंने सुन लिया उसकी सजा तेरी सजा के बाद ही खत्म करने का मैंने तथास्तु कह दिया तूझे, पर हे स्वार्थी मानव तूने उसका साथ नहीं माँगा उसके लिए सजा माँगी थी मैंने तो साथ ही छीना है सजा कायम है।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday 15 February 2022

आया बसंत हरि आओ ना


 आया बसंत मनभावन

हरि आओ ना। 


राधा हारी कर पुकार

हिय दहलीज पर बैठे हैं

निर्मोही नंद कुमार

कालिनी कूल खरी गाये

हरि आओ ना। 


फूल-फूल डोलत तितलियाँ

कोयल गाये मधु रागिनियाँ

मयूर पंखी भई उतावरी 

सजना चाहे भाल तुम्हारी

हरि आओ ना।


सतरंगी मौसम सुरभित 

पात-पात बसंत रंग छाय

गोप गोपियाँ सुध बिसराय 

सुनादो मुरली मधुर धुन आय

हरि आओ ना।


सृष्टि सजी कर श्रृंगार

कदंब डार पतंगम डोराय

धरणी भई मोहनी मन भाय

कुमदनी सेज सजाय। 

हरि आओ ना। 


    कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday 11 February 2022

अष्टमी का चांद


 अष्टमी का आधा चाँद


शुक्ल पक्षा अष्टमी है

चाँद आधा सो रहा है

बादलों का श्वेत हाथी

नील नदिया खो रहा है।


तारकों के भूषणों से

रात ने आँचल सँवारा

रौम्य तारों की कढ़ाई

रूप दिखता है कँवारा

कौन बैठा ओढ़नी में

रत्न अनुपम पो रहा है।


रैन भीगी जा रही है

मोतियों की माल बिखरी

नीर बरसा ओस बनकर

पादपों की शाख निखरी

हाथ सुथराई सहेजे

पात अपने धो रहा है।।


झूलना बिन डोर डाला

उर्मियों को गोद लेकर

वात की है श्वास भीनी

दौड़ती है मोद लेकर

सिंधु अपने आँगने में

नेह भर-भर बो रहा है।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday 8 February 2022

अप्रतिम सौंदर्य


 अप्रतिम सौन्दर्य 


हिम  से आच्छादित 

अनुपम पर्वत श्रृंखलाएँ

मानो स्फटिक रेशम हो बिखर गया

उस पर ओझल होते 

भानु की श्वेत स्वर्णिम रश्मियाँ 

जैसे आई हो शृंगार करने उनका 

कुहासे से ढकी उतंग चोटियाँ 

मानो घूँघट में छुपाती निज को

धुएँ सी उडती धुँध

ज्यों देव पाकशाला में

पकते पकवानों की वाष्प गंध

उजालों को आलिंगन में लेती

सुरमई सी तैरती मिहिकाएँ 

पेड़ों पर छिटके हिम-कण

मानो हीरण्य कणिकाएँ बिखरी पड़ी हों

मैदानों तक पसरी बर्फ़ जैसे

किसी धवल परी ने आँचल फैलया हो

पर्वत से निकली कृश जल धाराएँ

मानो अनुभवी वृद्ध के

बालों की विभाजन रेखा

चीड़,देवदार,अखरोट,सफेदा,चिनार 

चारों ओर बिखरे उतंग विशाल सुरम्य 

कुछ सर्द की पीड़ा से उजड़े 

कुछ आज भी तन के खड़े 

आसमान को चुनौती देते

कल-कल के मद्धम स्वर में बहती नदियाँ 

उनसे झाँकते छोटे बड़े शिला खंड 

उन पर बिछा कोमल हिम आसन

ज्यों ऋषियों को निमंत्रण देता साधना को

प्रकृति ने कितना रूप दिया  कश्मीर  को

हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम

शब्दों  में वर्णन असंभव।

"गिरा अन्य नयन बिनु बानी"


              कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


   " गिरा अनयन नयन बिनु बानी "

Sunday 6 February 2022

स्वर सम्राज्ञी कभी नहीं जाएंगी


 स्वर सम्राज्ञी कभी नहीं जाएंगी।


मधुर स्वरों की सम्राज्ञी वो 

कहां कभी जायेंगी कह दो

कंठ कंठ में ठहर गई है

श्वास-श्वास गायेगी कह दो।


कोकिला भी गर्वित होती

तुलना निज से जब सुनती थी

वागीश्वरी गले में रहती

नव स्वर बैठ सदा बुनती थी

वीणा के तारों में गूंथित

सदियों लहरायेगी कह दो।।


सुनने में गुलकंद से मीठी

गाने में मिश्री रस जैसी

कण-कण जैसे वीर रमे हैं

वात-वात रमती है ऐसी

देश दिशावर बाल वृद्ध हो

सब के मन भायेगी कह दो।।

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


ऐसी प्रतिभाएं जगती की

सुरपति भी जिनको करें नमन

हर देहरी पर छाप है उनकी

स्वरों का नहीं होंगा अगमन

संगीत नाद रव पावन वाणी

तीन भुवन छायेगी कह दो।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday 3 February 2022

बसंत की अनुगूँज


 बसंत की अनुगूँज


लो चंदन महका और खुशबू उठी हवाओं में,

कैसी सुषमा निखरी वन उपवन उद्यानों में।


निकला उधर अंशुमाली  गति  देने जीवन में,

ऊषा गुनगुना रही निशाँत का संगीत प्राँगण में।


मन की वीणा पर झंकार देती परमानंद में,

बसंत की अनुगूँज बिखरी मुक्त सी आबंध में।


वो देखो हेमांगी पताका लहराई अंबराँत में,

पाखियों का कलरव फैला चहूँ नीलकाँत में।


कुमुदिनी लरजने लगी सूर्यसुता के पानी में,

विटप झुम उठे हवाओं की मधुर कहानी में।


वागेश्वरी स्वयं नवल वीणा ले उतरी अनित्य में,

करें आचमन शक्ति अनंत अद्वय आदित्य में ।


लो फिर आई है सज दिवा नवेली के वेश में,

करे  सत्कार जगायें  नव निर्माण परिवेश में।


                 कुसुम कोठारी  प्रज्ञा

Tuesday 1 February 2022

पराग और तितली


 पराग और तितली


चहुँकोना नव किसलय शोभित

हवा बसंती हृदय लुभाती

दिखे धरा का गात चम्पई

उर अंतर तक राग जगाती ।


ओ मतवारी चित्रपतंगः

सुंदर कितनी मन भावन हो

मंजुल मोहक रूप तुम्हारा

अद्भुत सी चित्त लुभावन हो 

माली फूलों के रखवाले 

तुम तो फूलों पर मदमाती।।


हो कितनी चंचल तुम रानी

कोई पकड़ नहीं पाता है

आँखों से काजल के जैसे

रस मधुर चुराना भाता है

ले लेती सौरभ सुमनों से 

फिर उड़के ओझल हो जाती।।


चार दिशा रज कुसुम विलसता

पूछे रमती ललिता प्यारी

थोड़ा-थोडा लेती हो सत

लोभी मनु से तुम हो न्यारी

पात-पात उड़ती रहती हो

घिरती साँझ न तुमको भाती।।


फूलों सी सुंदर हो तितली

फिर भी फूल तुम्हें भरमाते 

तेरी सुंदर काया में कब

इंद्रनील आभा भर जाते 

अजा बदलती रूप अनेकों

तुम किससे पावन वर पाती।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'