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Friday 31 May 2019

देखो संध्या इठलाके आई

सूरज नीचे उतरा आहिस्ता
देखो संध्या इठलाके आई
रूप सुनहरा फैला मोहक
शरमा के फिर मुख छुपाया
रजनी ने  नीलांंचल खोला
निशि गंधा भी महक चला
भीनी भीनी  सौरभ छाई
हीमांशु गगन भाल चमका
धवल आभा से चमके तारे
निशा चुनरी पर जा बिखरे
रात सिर्फ़ अंधकार नही है
एक सुंदर  विश्राम  भी है
तन,मन का औ जीवन का
एक  नया सोपान  भी है ।

          कुसुम कोठारी।

Monday 27 May 2019

आये बादल

छाये बादल

छाने लगे अब थोड़े-थोड़े बादल लिये काली कोर
क्षितिज तक फैले कभी उस छोर कभी इस छोर।

पृथा पुलक रही मन मीत के आने की आहट सुन
कितनी क्लांत श्रृंगार विहीन हो बैठी थी विरहन ।

कृष्ण पिया को देख सिहर उठी नदिया मन हारी
कृषकाय, सर्व हारा, लुप्त प्रायः, रिक्त बेचारी।

वनप्रिया कुहुक उठी वन में ले मन अनुराग
श्याम छवि बादलों की भर गई मन में राग।

किसानों के हाथों में हल बीज रहे हुलक
आंगन उनके नन्हे नाचे आस लिये पलक ।
               
                 कुसुम कोठारी।

Friday 24 May 2019

गलीचा

प्रकृती के मोहक रंग...

बिछे गलीचे धानी
मिले न जिसकी सानी।

बांधा घेरा फूलों ने
पीले लाल बहु गुलों ने।

सजे बैंगनी कलियाँ
डाली डाली रंगरलियाँ ।

मन हर्षित  कर डारे
आई झूम बहारें ।

कैसी ये फुलवारी
गंध गंध हर डारी ।

कौन है इस का माली ?
जो जग का वनमाली ।

उस ने सौगातें दे डाली
झोली किसी की रहे ना खाली।

महक लिये उड़ी पवन मतवाली
आंगन घर द्वार गली गली।

श्वास श्वास केसर समाई
ये इन फूलों की कमाई।

     कुसुम कोठारी।

Monday 20 May 2019

अनसुलझी पहेली

अनसुलझी पहेली

पूर्णिमा गयी,बीते दिन दो
चाँद आज भी पुरे शबाब पर था
सागर तट पर चाँदनी का मेला
यूं तो चारों और फैला नीरव
पर सागर में था घोर प्रभंजन
लहरें द्रुत गति से द्विगुणीत वेग से
ऊपर की तरफ झपटती बढ़ती
ज्यो चंन्द्रमा से मिलने
नभ को छू लेगी उछल उछल
और किनारों तक आते आते
बालू पर निराश मन के समान
निढ़ाल हो फिर लौटती सागर में
ये सिलसिला बस चलता रहा
दूर शिला खण्ड पर कोई मानव आकृति
निश्चल मौन मुख झुकाये
कौन है वो पाषण शिला पर ?
क्या है उस का मंतव्य?
कौन ये रहस्यमयी,क्या सोच रही?
गौर से देखो ये कोई और नही
तेरी मेरी सब की क्लान्त परछाई है
जो कर रही सागर की लहरों से होड
उससे ज्यादा अशांत
उससे ज्यादा उद्वेलित
कौन सा ज्वार जो खिचें जा रहा
कितना चाहो समझना समझ न आ रहा ।
अनसुलझा रहस्य…....

                कुसुम कोठारी ।

Saturday 18 May 2019

छाया

दरख्त के साये से

दरख्त के स्याह सायों से
पत्तियों के झरोखे से
झांक रहा चाँद, हो बेताब
खड़ी दरीचे मृगनयनी
नयन क्यों सूने से बेजार
कच उलझे-उलझे
छायी है मुख पर
उदासी की छाया
पुछे चाँद ओ गोरी
पास नही है साजन तेरा
कहां है तेरे पीव का डेरा
बांट तकती सांझ सवेरा
तूझ को चिंताओं ने घेरा
ना हो उदास कहता मन मेरा
आन मिलेगा साजन तेरा
सुन चाँद के बैन
मुख पर रंगत आई
विरहा के बादल से
आस किरण मुस्काई।

      कुसुम कोठारी।

धूप जा बैठी छाया में

धूप जा बैठी छाया में

धूप शाम ढले आखिर
थक ही गई
सारा दिन कितनी
तमतमाई सी गुस्साई
अपनी गर्मी से शीतलता का
दोहन करती
विजेता सी गर्व में
गर्म फुत्कार छोड़ती
जैसे सब भष्म कर देगी
अपनी अगन से
ताल तलैया सब पी गई
अगस्त्य ऋषि जैसे
हर प्राणी को अपने तीव्र
प्रचंड ताप से त्रस्त करती
हवा को गर्म खुरदरे वस्त्र पहना
अपने साथ ले चलती
त्राहिमाम मचाती
दानवी प्रवृति से सब को सताती
आज सब जला देगी
जड़ चेतन प्राण औ धरती
सूर्य का खूंटा पकड़ बिफरी
दग्ध दावानल मचाके
आखिर थक गई शाम ढले
छुप बैठी जाके छाया में।

          कुसुम कोठारी।

Thursday 16 May 2019

समय चक्र में उदय

समय चक्र में उदय सुबह हो शाम अस्त भी होता है
सारे जग को रोशन करने वाला भानु, सांझ ढले सोता है
नव आशा का उन्माद लिये फिर नई सुबह आ जाता है
अपनी रक्ताभित लालिमा से विश्व दुल्हन सजाता है
सहस्त्र किरणों की डोर लिये धरती को छूने आता है
फिर शाम के फैले आंचल में थक  के सो जाता है।

                  कुसुम कोठारी।

Monday 13 May 2019

अथाह सागर में अनंत प्यास

अथाह सागर में, अनंत प्यास

सब अपनी चाल चले
मध्यम,द्रुत गति,
कोई रुके, ठहरे।

अथाह सागर में
मीन की प्यास की
कोई थाह नही
चले निरन्तर
किसकी तलाश
कोई नही जाने
ढूंढ रही है क्या ?

वो सुधा ! जो
सुर ,सुरपति,
ले के दूर चले
या उत्कर्ष करने
निज प्राण व्याकुल
गरल घट लखे
अनंत में यों डोले
फिर भी मन वेदना
का एक तार ना खोले
कब तक यूंही भटकेगी
प्यास अबूझ लिये ।

    कुसुम कोठारी ।

Saturday 11 May 2019

मां

मां
भारत में मातृ दिवस मई महीने के दुसरे रविवार को मनाया जाता है जो आज 12 मई को है।
सभी को मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

मदर्स डे, मातृत्व दिवस, वैसे तो मां के लिये कोई एक दिन साल में निश्चित करना एक विचित्र सी स्थिति है, पर फिर जब पाश्चात्य अनुसरण के पीछे ऐसा कर ही रहे हैं, जैसे और भी बहुत सी  वहां की संस्कृति के अनुरूप हम बदल रहे हैं तो आज एक ख्याल ऐसा भी मां मेरी मां और पुरे विश्व में हर मां के लिये....

जग में मेरा अस्तित्व तेरी पहचान है मां
भगवान से पहले तूं है भगवान के बाद भी तूं ही है मां
मेरे सारे अच्छे संस्कारों का उद्गम  है तूं मां
पर मेरी हर बुराई की मैं खुद दायी हूं मां
तूने तो सब सद्गुणों को ही दिया था ओ मेरी मां
इस स्वार्थी संसार ने सब स्वार्थ सीखा दिये मां ।

तुम तो मां
जिंदगी का पुख्ता किला हो
उस किले की आधारशिला हो
सुदृढ़ जमीन हो
घनेरा आसमां भी तुम हो मां
जिंदगी का  सिलसिला हो
मंजिल के मील का पत्थर भी तुम
घनी शीतल छांव हो
उर्जा से भरा सूर्य हो
मिश्री की मिठास हो
दूध का कटोरा हो
फलों की ताजगी हो
श्री फल सी वरदाता हो।

यही कहूंगी....

तूने मुझे जन्म दिया मां मेरा ये सौभाग्य रहा
तेरे कोमल कर कमलों का सर पर आशीर्वाद रहा।

तूने मुझे जतन से पाला सारा जग ही वार दिया
अब सोचूं ओ मां मेरी, मैने तो तुझ को कुछ ना दिया।

                     कुसुम कोठारी।

Friday 10 May 2019

कहो तो गुलमोहर

कहो तो गुलमोहर

मई जून में भी यूं खिल-खिल
बौराये बसंत हुवे जाते हो ।
कहो तो गुलमोहर कैसे !
गर्मी में यूं मुस्कुराते हो ?

कहो क्या होली पर भटक
कहीं दूर गली जाते हो
चटकिला रंग लिए अब
किससे फाग खेलने आते हो।

छाया घनेरी मन भावन
पथिक को लुभाते हो
धानी चुनरी रेशमी लाल
बूंटों से सज जाते हो ।

रंगत से अपनी सूरज से
तुम होड़ लेते रहते हो
गर्मी से लड़ने को सुर्खरु
तमतमाऐ से रहते हो।

मस्त हो इतराते रहते हो
गुनगुनाते गीत गाते हो
झूम झूम लहरा कर
पाखियों को न्योता देते हो।

पढ़ाते हो पाठ जिंदगी में
कितनी भी धूप हो
एहसासों की रंगत का
कम कभी ना सरूप हो।

         कुसुम कोठारी।

Tuesday 7 May 2019

व्यवहार संतुलन


व्यवहार संतुलन

मन अनुभव  का कच्चा धान
कैसे रांधु मैं अविराम ।
कभी तेज आंच जल जल जाए
कभी उबल कर आग बुझाए
बुझे आंच कच्चा रह जाए
रांधु  चावल  उजला
बीच कहीं कंकर दिख जाए ।
रे मन पागल बावरे,
धीरज आंच चढा तूं चावल
सद्ज्ञान घृत की कुछ बुंदे डार
हर दाना तेरा खिल खिल जाए
व्यवहार थाली में सजा पुरसाय
जो देखे अचंभित हो जाए
कौर खाने को हाथ बढाए ।।

         कुसुम कोठारी।

Friday 3 May 2019

एक निष्ठ सूरज

एक निष्ठ सूरज

ओ विधाता के
अनुपम खिलौने !

चंचल शिशु से तुम
कभी आसमां
छूने लगते
कभी सिंधु में
जा गोते लगाते
दौड़े फिरते
दिनभर
प्रतिबद्धता
और निष्ठा से
फिर थककर
काली कंबली
ओढकर सो जाते
उठकर प्रभात में
कनक के पहनते
वसन आलोकित
छटा फैलाते
ब्रहमाण्ड से धरा तक
कभी मिहिका का
ओढ आंचल
गोद में माँ के
सो जाते
जैसे कोई
दिव्य कुमार
कभी देते सुकून
कभी झुलसाते
कभी बादलों
की ओट में
गुम हो जाते
ये तो बताओ
पहाड़ी के पीछे
क्यों तुम जाते
नाना स्वांग रचाते
अपनी प्रखर
रश्मियों से
कहो क्या
खोजते रहते
दिन सारे ?

ओ विधाता के
अनुपम ! खिलौने।
    कुसुम कोठारी।

Thursday 2 May 2019

फुरसत ए जिंदगी


फुरसत -ए ज़िंदगी कभी तो हो रू-ब-रू
ढल चला आंचल अब्र का भी हो  सुर्ख़रू ।

पहरे बिठाये थे आसमाँ पर आफ़ताब के
वो ले  गया इश्राक़ आलम हुवा बे-आबरू ।

चलो चाँद पर कुछ क़समे उठा देखा जाए
चमकता रहा माहताबे अल शब-ए आबरू।

इश्राक़=चमक
अल =कला

               कुसुम कोठारी।

Wednesday 1 May 2019

श्रमिक दिवस पर एक चिंतन

एक चिंतन

कवि काव्य, साहित्यकार साहित्य और भी लेखन कला में हम श्रमिक और गरीब को भर-भर लिखते हैं पर एक मजदूर को उससे कितना सरोकार है ? सोचें !!

मजदूर नाम से ही एक कर्मठ पर बेबस लाचार सा व्यक्तित्व सामने आ खड़ा होता है जिसकी सारी जिंदगी बस अपना और परिवार का पेट भर जाय इतनी जुगाड़ में निकल जाता है ।सारा परिवार बच्चों सहित लगा रहता है मजदूरी में पर वो भी सदैव मयस्सर नहीं होती। आधे दिन  फाके की नौबत रहती है, बिमारी में उधारी और पास का सब कुछ बिक जाता है फिर भी सब कुछ सापेक्ष नही होता।
बस एक मजदूर के नाम पर एक साधन हीन चेहरा उभर कर आता है जिसे हम गरीब कहते हैं।

और उसी गरीब  पर *राष्ट्रपिता* के कुछ उद्दगार हृदय-स्पर्शी मर्म को भेदते ....

"गरीबों का काव्य ,समाज ,और रचनात्मकता कितनी?"

"भारत के विस्तृत आकाश के नीचे मानव -पक्षी रात को सोने का ढ़ोंग करता है, भुखे पेट उसे जरा भी नींद नही आती और जब वह सुबह बिस्तर से उठता है तब उसकी शक्ति पिछली रात से कम हो जाती है।

लाखों मानव-पक्षियों को रात भर भूख प्यास  से पीड़ित रहकर जागरण करना पड़ता है अथवा जाग्रत सपनों में उलझे रहना पड़ता है ।
यह अपने अपने अनुभव की, अपनी समझ की, अपनी आँखों देखी  अकथ दुखपूर्ण अवस्था और कहानी है।
कबीर के गीतों से इस पीड़ित मानवता को सान्त्वना दे सकना असम्भव है ।
यह लक्षावधि भूखी मानवता हाथ फैलाकर, जीवन के पंख फड़फड़ाकर कराहकर केवल एक कविता माँगती है _पौष्टिक भोजन ।"

श्री विष्णुप्रभाकर जी के एक उपन्यास
" तट के बंधन " से लिया ये एक पत्र है जो महात्मा गांधी ने रविन्द्र नाथ टैगोर को लिखा था ।

एक संकलन......