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Thursday 30 April 2020

न शोहरत में ख़लल डालो

न शोहरत में ख़लल डालो

सोने दो चैन से मुझे न ख्वाबों में ख़लल डालो।
न जगाओ मुझे यूं न वादों में  ख़लल डालो ।

जानने वाले जानते हो कितना अर्ज़मन्द उसको ।
पर्दा-ए-राज़ रहने दो यूं न शोहरत में ख़लल डालो।।

शाख से टूट पत्ते दूर चले उड के अंजान दिशा‌ ।
ऐ हवाओं ना रुक के यूं मौज़ौ में ख़लल डालो।

रात भर रोई नर्गिस सिसक कर बेनूरी पर अपने।
निकल के ए आफताब ना अश्कों में ख़लल डालो।

डूबती कश्तियां कैसे साहिल पे आ ठहरी धीरे से ।
भूल भी जाओ ये सब ना तूफ़ानों मे ख़लल डालो।

रुह से करता रहा सजदा पशेमान सा था मन।
रहमो करम कैसा,अब न इबादत में ख़लल डालो।

                 कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

ज्ञान की आशा

ज्ञान की आशा

कभी न मांगू भिक्षा बाबा ,
हाथ उठा के काँसा।
पढ़ना साहब बनना मुझको,
मैं न बजाऊं ताशा ।

तन सूखा है भीगी आँखे ,
चिथड़े  लिपटी काया ।
पेट पीठ सब एक हो रहे ,
अहो भाग्य की माया ।
दुर्दिन की छाई है बदली ,
समय फेंकता पासा ।।

ऊपर सर के टूटी टपरी ,
भूख पसरती द्वारे ।
फिर भी मन में है दृढ़ इच्छा,
निज भविष्य संवारे।
कठिन राह की तोड़ वर्जना,
जगी ज्ञान की आशा ।।

थाम हाथ ली पटिया खड़िया ,
खूब लिखूं अब लिखना ।
बड़ी बनूंगी जब अधिकारी ,
मुझको दृढ़ है दिखना ।
बाबा कुछ दिन मुझे सँभालों ।
फिर जाऊंगी नासा ।।

      कुसुम कोठारी।

Saturday 25 April 2020

डूबती है कश्तियाँ किनारों पर

माना उम्मीद पर जीने से हासिल कुछ नही लेकिन ।
पर ये भी क्या,कि दिल को जीने का सहारा भी न दें।

उजड़ने को उजड़ती है बसी  बसाई बस्तियां ।
पर ये भी क्या के फ़क़त एक आसियां भी ना दे।

खिल के मिलना ही है धूल में ज़ानिब नक्बत।
पर ये क्या के खिलने को गुलिस्तां भी न दे।

माना डूबती है कश्तियां किनारों पे मगर
पर यूं भी क्या किसी को अश़्फाक भी न दे।

बरसता रहा आब ए चश्म रात भर बेज़ार
पर ये क्या उक़ूबत तिश्नगी में पानी भी न दे।

मिलने को तो मिलती रहे दुआ-ए-हयात रौशन
पर ये क्या के अज़ुमन को आबदारी भी न दे ।

                 कुसुम कोठारी प्रज्ञा

नक्बत=दुर्भाग्य,अश़्फाक =सहारा आब ए चश्म = आंसू, उक़ूबत =सजा, तिश्नगी =प्यास

Thursday 23 April 2020

उतरा मुलमा

उतरा मुलमा

वक्त बदला तो संसार ही बदला नज़र आता है।
उतरा मुलमा फिर सब बदरंग नज़र आता है।।

दुरूस्त न  की कश्ती और डाली लहरों में।
फिर अंज़ाम ,क्या हो साफ नज़र आता है।।

मिटते हैं आशियानें मिट्टी के ,सागर किनारे।
फिर क्यो बिखरा ओ परेशान नज़र आता है।।

ख़्वाब कब बसाता है गुलिस्तां किसीका‌
ऐसा  उजड़ा कि बस हैरान नज़र आता है।।

                  कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

तांडव

तांडव

भीगी मृदा पाल बांधे
तोड़ सारे मोह धागे।
चलाचल की इस घड़ी में
रूठ सारे भूत भागे।

असमंजस के पल अद्भुत
रोगी रोग भूल बैठा।
डरे सहमे से चिकित्सक
इक  विषाणु ऐसा  ऐंठा।
व्याधियाँ हँसने लगी हैं
सो रहे दिन रात जागे।।

एक कालिमा अदृश्य सी
सारे विश्व पटल छाई।
पासे फेंक करे क्रीड़ा
खेले ज्यों चौसर  घाई।
हार किसकी जीत कैसी
भग्न तार उलझे तागे ।।

मंदिरों ताले पड़े हैं
प्रभु को भी एकांत वास।
दुर्दिन काल घंटा बजा
सृजन शांत नाचे विनाश ।
शंखनाद के स्वर बदले
भँवर में कितने अभागे।।

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday 20 April 2020

बहे समसि ऐसे

बहे समसि ऐसे

आखर आखर जोड़े मनवा ,
आज रचूं फिर से कविता।
भाव तंरगी ऐसे बहती ,
जैसे निर्बाधित सविता।

मानस मेरे रच दे सुंदर ,
कुसमित कलियों का गुच्छा।
तार तार जस बुने जुलाहा ,
जैसे रेशम का लच्छा।
कल-कल धुन में ऐसी निकले,
लहराती मधुरम सरिता।।

अरुणोदयी लालिमा रक्तिम ,
क्षितिज का अनुराग प्यारा ।
झरना जैसे झर झर बहता,
प्रकृति का शृंगार न्यारा ।
सारे अद्भुत रूप रचूं मैं ,
बहे वात प्रवाह ललिता ।

निशि गंधा की सौरभ लिख दूं ,
भृंग का श्रुतिमधुर कलरव ।
स्नेह नेह की गंगा बहती ,
उपकारी का ज्यों आरव ।
समसि रचे रचना अति पावन ,
रात दिन की चले चलिता।।

         कुसुम कोठारी।

Wednesday 15 April 2020

जनक जीवन की आधारशिला

जनक जीवन की आधारशिला

देकर मुझ को छांव घनेरी
कहां गये तुम हे तरूवर
अब छांव कहां से पाऊं।

देकर मुझको शीतल नीर
कहां गये हो नीर सरोवर
अब अमृत कहां से पाऊं।

देकर मुझको चंद्र सूर्य
कहां गये हो नीलांबर
अब प्राण वात कहां से पाऊं।

देकर मुझको आधार महल
कहां गये हो धराधर
अब मंजिल कहां से पाऊं।

देकर मुझ को जीवन
कहां गये हो सुधा स्रोत
अब हरितिमा कहां से पाऊं।

          कुसुम कोठरी।

मीरा सी प्रीत

मीरा सी प्रीत

मांगी नेह निशानी निष्ठुर
पाहन प्रतिमा कब चाही ।
उड़ते पाखी नील गगन के
बिन जल तड़पे हिय माही ।।

आंखों का ये तेज चीरता
छूवन कठिन शैल प्रस्तर ।
बांध न पाये सांसें सीली
भावों का रिक्त कनस्तर ।
युगों युगों तक पंथ निहारा
रिक्त गागर समय दाही।।

मीरा जैसी प्रीत निभाए
एक मृदा की मूरत से ।
जड़ जंगम में घूमी ललना
बँधी मोहनी सूरत से ।
काँच हृदय पर पत्थर मारा
देश छोड़ छूटा राही ।।

कैसे प्रतिमा प्राण फूंक कर
धुक धुक सी धड़कन भर दे  ।
आँखों की भाषा जो समझें
ऐसा कुछ जादू कर दे ।
या निज को पाषण कर डाले
बन शिला खंड अवगाही ।।

       कुसुम कोठारी।

Friday 10 April 2020

मीत मिले

मीत मिले

लहरों की मधुरिम सी हलचल
सरस किनारा सागर का ।
छलक रहा मधुरस भी ऐसा
भरी रसवंति गागर का।।

समय बांटता मुक्ता अविरल
चुनने वाला है चुनता ।
रेशम डांड हृदय पंकज की
सुंदर सी अवली बुनता।
मीत मिले निलाम्बर अतल पर
हर्षित मन जलआगर का।।

नम सैकत पांवों के नीचे
थिरक थिरक तन मन घूमे।
एक ताल पर लहरें मटकी
एक ताल दो  दिल झूमे।
समय बीत का भान नही सुध
नभ डेरा कोजागर का ।।

नील सिंधु में रमती उर्मिल
मौसम भर भर मद प्याला।
वितान अम्बर पर खुशियों का
मद्यप  दर्पित सुर बाला।
जीवन इसी घड़ी पर ठहरा
निश्चय निशांत जागर का।।

कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

सैनिक

सैनिकों !ओ मेरे देश के वीर सैनिकों ,
नमन तुम्हें, हर देश वासी का ।
खड़े हो तुम चट्टानों से देश के बन प्रहरी।
जलती धूप सहते, जमने वाली सर्दी मे डटे रहते।
भूख प्यास सभी तजते, रात दिन जुटे रहते।
घर से दूर ,परिवार से बिछड़, असमय प्राण तजते ।
पत्थरों का सामना करके भी, देश रक्षा हित चुप रहते।
अपना लहू बहाते ,सब की सहायता में लगे रहते।
तुम्हारी कुर्बानीयों से उन्नत है, भाल देश का ।
औ सैनिकों, मेरे वीर सैनिकों, नमन तुम्हें हम प्रतिपल करते।

             कुसुम कोठारी।

Thursday 9 April 2020

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा

हृदय मरूस्थल मृगतृष्णा सी,
भटके मन की हिरणी।
सूखी नदिया तीर पड़ी ज्यों
ठूंठ काठ की तरणी।।

कब तक राह निहारे किसकी,
सूरज डूबा जाता।
काया झँझर मन झंझावात,
हाथ कभी क्या आता।
अंतर दहकन दिखा न पाए
कृशानु तन की अरणी।।

रेशम धागा उलझ रखा है,
गांठ पड़ी है पक्की।
भँवर याद के चक्कर काटे
जैसे चलती चक्की।
जाने वाले जब लौटेंगे
तभी रुकेगी दरणी।‌।

सुधि वन की मृदु कोंपल कच्ची,
पोध सँभाल रखी है।
सूनी गीली साँझ में पीर ,
एक घनिष्ठ सखी है।।
दिन विहान औ रातें बीती,
वहीं रुकी अवतरणी ।।

कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

Friday 3 April 2020

'विज्ञात नव गीत माला' द्वारा प्रदत्त उपनाम ' प्रज्ञा ''

"कलम की सुगंध" एंव उसके कई सहायक मंच आदरणीय श्री संजय कौशिक 'विज्ञात' जी के द्वारा स्थापित काव्य मंच है ,जहां नवांकुरों को हिंदी काव्य की अनेक विधाओं को सीखने एवं उनमें लिखने का अवसर मिलता है ।
उन्ही में एक "विज्ञात नवगीत माला" नव गीत सृजन मंच है।
उस मंच पर सृजन काल में, आदरणीय श्री संजय कौशिक 'विज्ञात' जी द्वारा रामनवमी के शुभ अवसर उपनाम देने का अभिनव आयोजन किया गया जिसमें मुझे साहित्यिक उपनाम ' प्रज्ञा 'प्रदान किया गया।
किसी रचनाकार को हिंदी साहित्य के प्रबुद्ध मंच से साहित्यिक उपनाम  प्रदत किया जाना उसे प्रेरणा एवंआत्मविश्वास प्रदान करता है।
इस सम्मान  के लिए मैं आदरणीय संजय कौशिक "विज्ञात "जी को हृदय तल से आभार व्यक्त करती हूं।
उनका प्रोत्साहन एवं दिशानिर्देश सदा यूं ही मिलता रहे। आपके द्वारा दिया गया स्नेह एवं मार्गदर्शन कभी भुलाया नही जा सकता।
पुनः अशेष आभार ।
कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

युद्ध पर जाते सैनिकों के मनों भाव

युद्ध पर जाते सैनिकों के मनोभाव।

आओ साथियों दो घड़ी विश्राम कर लें ,
ठंडा गरम रोटी चावल जो मिले पेट भर लें ।

मंजिल दूर राह प्रस्तर हौसला बुलंद कर लें ,
मां का श्रृंगार न उजड़े ऐसा दृढ़ निश्चय करलें ।

कंधों पर दायित्व बड़े, राह में पर्वत खड़े  ,
देश की रक्षा हित हो प्राण भी देना पड़े ।

मां-बाबा,भगिनी-भ्राता, प्रिया को याद कर लें,
आंगन बिलखते छोड़े,नन्हो को दिल में धर लें।

फिर ये क्षण ना जाने आ पायेंगे क्या जीवन में ,
दुश्मन घात लगाते बैठा सरहद के हर कोने में।

एक-एक सौ को मारेगें शीश रखेगें हाथों में ,
पैरों से चल कर आयें या लिपट कर तिरंगे में।

कुसुम कोठारी।

"पलाश "प्रेम के हरे रहने तक

प्रेम के हरे रहने तक

पलाश का मौसम अब आने को है।
जब खिलने लगे पलाश
संजो लेना आंखों में।
सजा रखना हृदय तल में
फिर सूरज कभी ना डूबने देना।
चाहतों के पलाश को
बस यूं ही खिले-खिले रखना।
हरी रहेगी अरमानों की बगिया
प्रेम के हरे रहने तक।

           कुसुम कोठारी ।

पलाश भी लगे झरने

नैना रे अब ना बरसना

शीत लहरी सी जगत की संवेदना,
आँसू अपने आंखों में ही छुपा रखना ।
नैना रे अब ना बरसना।

शिशिर की धूप भी आती है ओढ़  दुशाला ,   
अपने ही दर्द को लपेटे है यहाँ सारा जमाना।
नैना रे अब ना बरसना।

देखो खिले खिले पलाश भी लगे  झरने,
डालियों को अलविदा कह चले पात सुहाने।
नैना रे अब ना बरसना।

सलज कुसुम ओढ़ तुषार दुकूल प्रफुल्लित ,
प्रकृति के सुसुप्त नैसर्गिक द्रव्य है मुखलित।
नैना रे अब ना बरसना।

जो कल न कर सका उस से न हो अधीर ,
है जो आज उसे कर इष्ट मुक्ता सम स्वीकार ।
नैना रे अब ना बरसना ।

              कुसुम कोठारी।