Followers

Saturday 25 April 2020

डूबती है कश्तियाँ किनारों पर

माना उम्मीद पर जीने से हासिल कुछ नही लेकिन ।
पर ये भी क्या,कि दिल को जीने का सहारा भी न दें।

उजड़ने को उजड़ती है बसी  बसाई बस्तियां ।
पर ये भी क्या के फ़क़त एक आसियां भी ना दे।

खिल के मिलना ही है धूल में ज़ानिब नक्बत।
पर ये क्या के खिलने को गुलिस्तां भी न दे।

माना डूबती है कश्तियां किनारों पे मगर
पर यूं भी क्या किसी को अश़्फाक भी न दे।

बरसता रहा आब ए चश्म रात भर बेज़ार
पर ये क्या उक़ूबत तिश्नगी में पानी भी न दे।

मिलने को तो मिलती रहे दुआ-ए-हयात रौशन
पर ये क्या के अज़ुमन को आबदारी भी न दे ।

                 कुसुम कोठारी प्रज्ञा

नक्बत=दुर्भाग्य,अश़्फाक =सहारा आब ए चश्म = आंसू, उक़ूबत =सजा, तिश्नगी =प्यास

11 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-04-2020) को     शब्द-सृजन-18 'किनारा' (चर्चा अंक-3683)    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर आभार आदरणीय चर्चा मंच पर उपस्थिति अवश्य रहेगी मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदय तल से आभार।

      Delete
  2. सुंदर सृजन

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका।

      Delete
  3. माना डूबती है कश्तियां किनारों पे मगर
    पर यूं भी क्या किसी को अश़्फाक भी न दे।

    बहुत खूब ,सुंदर सृजन कुसुम जी ,सादर नमन

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी ।
      आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।

      Delete
  4. माना डूबती है कश्तियां किनारों पे मगर
    पर यूं भी क्या किसी को अश़्फाक भी न दे।
    वाह !! बहुत खूब !!
    लाजवाब और बेहतरीन सृजन ।

    ReplyDelete
  5. शानदार सृजन।
    रचना का शीर्षक ही बहुत कुछ बोल गया। जीवन में सकारात्मकता को आत्मसात करनेवाला सृजन साहित्य की थाती बन जाता है। बार-बार पढ़नेयोग्य संग्रहणीय रचना।
    बधाई एवं शुभकामनाएँ।
    लिखते रहिए।
    सादर नमन आदरणीया दीदी।

    ReplyDelete
  6. खिल के मिलना ही है धूल में ज़ानिब नक्बत।
    पर ये क्या के खिलने को गुलिस्तां भी न दे।
    वाह!!!!
    बहुत ही लाजवाब सृजन....
    बहुत बहुत बधाई कुसुम जी शानदार सृजन हेतु।

    ReplyDelete
  7. जिंदगी बहुत कठोर होती है ...
    आशियाँ उजड़ने के बाद कौन आशियाँ देता है ...
    हर शेर में गहरा प्रश्न ...

    ReplyDelete
  8. वाह कुसुम जी, उक़ूबत-ए-तिश्नगी में पानी की तलाश... वाह क्या खूब ल‍िखा

    ReplyDelete