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Friday 29 November 2019

थोड़ा शहर गांव में

जब पेड़ों पर कोयल काली
कुहुक-कुहुक कर गाती थी,
डाली-डाली डोल पपीहा
पी कहां  की राग सुनाता था,
घनघोर  घटा घिर आती थी
और मोर नाचने आते थे ,
जब गीता श्यामा की शादी में
सारा गांव नाचता गाता था ,
कहीं नन्हे के जन्मोत्सव पर
ढोल बधाई  बजती थी  ,
खुशियां  सांझे की होती थी
गम में हर आंख भी रोती थी,
कहां गया वो सादा जीवन
कहां गये वो सरल स्वभाव ,
सब "शहरों" की और भागते
 नींद  ओर चैन गंवाते ,
या वापस आते समय
थोडा शहर साथ ले आते ,
सब भूली बिसरी बातें हैं
और यादों के उलझे धागे हैं।

           कुसुम कोठारी ।

Wednesday 27 November 2019

एक और महाभारत

एक और महाभारत

गर्दिश ए दौर किसका था
कुछ समझ आया कुछ नहीं आया,
वक्त थमा था उसी जगह
हम ही गुज़रते रहे दरमियान,
गजब खेल था समझ से बाहर
कौन किस को बना रहा था,
कौन किसको बिगाड़ रहा था,
चारा तो बेचारा आम जन था,
जनता हर पल ठगी सी खड़ी थी
महाभारत में जैसे द्युत-सभा बैठी थी,
भीष्म ,धृतराष्ट्र,द्रोण ,कौरव- पांडव
न जाने कौन किस किरदार में था,
हां दाव पर द्रोपदी ही थी पहले की तरह,
जो प्रंजातंत्र के वेश में लाचार सी खड़ी थी,
जुआरी जीत-हार तक नये पासे फैंकते रहे,
आदर्शो का भरी सभा चीर-हरण होता रहा,
केशव नही आये ,हां केशव अब नही आयेंगे ,
अब महाभारत में "श्री गीता" अवतरित नहीं होगी,
बस महाभारत होगा छल प्रपंचों का ।

              कुसुम कोठारी।

Friday 22 November 2019

बिटिया ही कीजे

अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजे ।
प्रभु मुझ में ज्वाला भर दीजे,
बस  ऐसी  शक्ति  प्रभु  दीजे,
अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजे।
आंख उठे जो लिए बेशर्मी
उन आंखों से ज्योति छीन लूं ,
बन अम्बे ,दानव मन का
शोणित नाश करू कंसों का,
अबला, निर्बल, निःसहाय नारी का ,
संबल बनूं दम हो जब तक
चीर हीन का बनूं मैं आंचल ,
आतताईंयों की संहारक ,
काली ,दुर्गा ,शक्ति रूपेण बन,
हनन करू सारे जग के खल जन,
विनती ऐसी प्रभु सुन लीजे
अगले जनम मोहे बिटिया  ही कीजे।।

                कुसुम कोठारी ।

Thursday 21 November 2019

दर्पण दर्शन

दर्पण दर्शन

आकांक्षाओं के शोणित
बीजों का नाश
संतोष रूपी भवानी के
हाथों सम्भव है
वही तृप्त जीवन का सार है।

"आकांक्षाओं का अंत "।

ध्यान में लीन हो
मन में एकाग्रता हो
मौन का सुस्वादन
पियूष बूंद सम
अजर अविनाशी।

शून्य सा, "मौन"।

मन की गति है
क्या सुख क्या दुख
आत्मा में लीन हो
भव बंधनो की
गति पर पूर्ण विराम ही।

परम सुख,.. "दुख का अंत" ।

पुनः पुनः संसार
में बांधता
अनंतानंत भ्रमण
में फसाता
भौतिक संसाधन।
 यही है " बंधन"।

स्वयं के मन सा
दर्पण
भली बुरी सब
दर्शाता
हां खुद को छलता
मानव।
" दर्पण दर्शन "।

कुसुम कोठारी।

Saturday 16 November 2019

कोरे मन के कागज

कोरे मन के कागज पर
चलो एक गीत लिखते हैं,
डूबाकर तूलिका भावों में
चलो एक गीत लिखते हैं ।

मन की शुष्क धरा पर
स्नेह नीर सिंचन कर दें,
भुला  करके सभी शिकवे
चलो एक गीत लिखते हैं।

शब्द तुम देना चुन-चुन कर
मैं सुंदर अर्थों से सजा दूंगी,
सरगम की किसी धुन पर
चलो एक गीत लिखते हैं।

हवाओं में कोई सरगम
मदहोशी हो फिजाओं में,
बैठ कर किसी तट पर
चलो एक गीत लिखते हैं।

अगर मैं भूलूं तो तुम गाना
संग मेरे तुम भी गुनगुनाना,
 गुजरते संग-संग राहों पर
चलो एक गीत लिखते हैं।

       कुसुम कोठारी।

Wednesday 13 November 2019

नौनिहाल

नौनिहाल कहाँ खो रहे हैं
कहाँ गया वो भोला बचपन
कभी किलकारियां गूंजा करती थी
और अब चुपचाप सा बचपन
पहले मासूम हुवा करता था
आज प्रतिस्पर्धा में डूबा बचपन
कहीं बङों की भीड़ में खोता
बड़ी-बड़ी सीख में उलझा बचपन
बिना खेले ही बीत रहा
आज के बच्चों का बचपन।

       कुसुम कोठारी ।

Tuesday 12 November 2019

ढोल की पोल

अब सिर्फ देखिये, बस चुप हो देखिए
पांव की ठोकर में,ज़मी है गोल कितनी देखिए।

क्या सच क्या झूठ है, क्या हक क्या लूट है,
मौन हो सब देखिए, राज यूं ना खोलिए,
क्या जा रहा आपका, बेगानी पीर क्यों झेलिए,
कोई पूछ ले अगर, तो भी कुछ ना बोलिए ।
अब सिर्फ देखिए, बस चुप हो देखिए ।

गैरत अपनी को, दर किनार कर बैठिए,
कुछ दिख जाय तो, मुख अपना मोडिए ,
कुछ खास फर्क पडना नही यहां किसीको,
कुछ पल में सामान्य होता यहां सभी को ।
अब सिर्फ देखिए, बस चुप हो देखिए।

ढोल में है पोल कितनी बजा-बजा के देखिए,
मार कर ठोकर या फिर ढोल को ही तोड़िए,
लम्बी तान सोइये, कान पर जूं ना तोलिए,
खुद को ठोकर लगे तो,आंख मल कर बोलिए।
अब सिर्फ क्यों देखिये, लठ्ठ बजा के बोलिए।

                 कुसुम कोठारी

Friday 8 November 2019

नशेमन इख़लास

नशेमन इख़लास

ना मंजिल ना आशियाना पाया
वो  यायावर सा  भटक गया

तिनका-तिनका जोडा कितना
नशेमन इख़लास का उजड़ गया

वह सुबह का भटका कारवाँ से
अब तलक सभी से बिछड़ गया

सीया एहतियात जो कोर-कोर
क्यूं कच्चे धागे सा उधड़ गया।।

         कुसुम कोठारी।

Wednesday 6 November 2019

हां यूं ही कविता बनती है।

हां यूं ही कविता बनती है।

.   गुलाब की पंखुड़ियों सा
        कोई कोमल भाव
     मेधा पुर में प्रवेश कर
अभिव्यक्ति रूपी मार्तंड की
     पहली मुखरित किरण
              के स्पर्श से
            मन सरोवर में
      सरोज सा खिल जाता है
      जब कोरे पन्ने पर अंकित
        होने  को आतुर शब्द
   अपने आभूषणों के साथ
      आ विराजित होते हैं
  तब रचना सुंदर रेशमी बाना 
         पहन इठलाती है।
    हां यूं ही कविता बनती है।

             कुसुम कोठारी।

Sunday 3 November 2019

आस मन पलती रही

"पलकों में सपने सँजोये,
आस मन पलती रही।'
चांदनी के वर्तुलों में
सोम सुधा झरती रही।

सुख सपन सजने लगे,
युगल दृग की कोर पर।
इंद्रनील कान्ति शोभित
मन व्योम के छोर पर ।
पिघल-पिघल निलिमा से,
मंदाकिनी बहती रही ।
पलकों में सपने संजोए
आस मन पलती रही।

गुनगुनाती रही दिशाएं,
लिए राग मौसम खड़ा।
बाहों में आकाश भरने
पाखियों सा  मन उड़ा।
देख वल्लरियों पर यौवन
कुमुद कली खिलती रही
पलकों में सपने संजोए
आस मन पलती रही।

द्रुम बजाते रागिनी सी,
मिल समीर की थाप से।
झिलमिलता नीर सरि का,
दीप मणी की चाप से ।
उतर आई अप्सराएं,
शृंगार धरा करती रही ।
पलकों में सपने संजोए
आस मन पलती रही।

    कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday 1 November 2019

झील का पानी

ये शांत झील ठहरा पानी
गौर से सुनो कह रहा कहानी।

बर्फ जब चारों तरफ सोई
धूप के गले मिल फूट-फूट रोई
मेरा जन्म हुवा मिटने की पीडा से
धार बन बह चला रोते-रोते
पत्थरों पर सर पटकते,रुहानी
मेरी कहानी......

मैं ऊंचे पथरीले "सोपान" से उतरा
कितनी चोट सही पीडा झेली
रुका नही चलता रहा निरन्तर
मैं रुका  गहराई ने मुझे थामा
सुननी थी उसे मेरी जुबानी,
मेरी कहानी......

कभी कंकर लगा हृदय स्थल पर
मैं विस्मित! कांप गया अंदर तक
कभी आवागमन करती कश्तियां
पंछी  कलरव करते मुझ में
और हवा आडोलित करती, सुहानी
मेरी कहानी.......

किनारों पर मेरे लगते जलसे
हंसते खेलते आनंदित बडे,बच्चे
मैं खुश होता उन्हें देख-देख पर,
पीड़ा से भर जाता जब कर जाते 
 प्रदुषित मुझे, वही पुरानी
मेरी कहानी.......

ये शांत झील ठहरा पानी
गौर से सुनो कह रहा कहानी।
          कुसुम कोठारी।