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Saturday 31 August 2019

शब्दों में ढल जाना~ओ मेरी कविता

ओ मेरी कविता कहां तिरोहित हुई तुम ,
अंतर से निकल शल्यकी में ढलती नहीं क्यूं,
हे भाव गंगे मेरी , सुरंग पावस ऋतु छाई
पावन सलिल बन फिर छलकती नहीं क्यूं ।

क्यों मन सीपिज अवली में गूंथते नहीं ,
क्यों शशि अब सोमरस बरसाता नहीं ,
चंचल किरणें भी मन आंगन उतरती नही ,
कलियां चटकती नहीं, प्रसून खिलते नही ।

मधुबन क्यों है रिक्त सुधा ,बोध पनघट सूना,
हवा में  संगीत नहीं, मां की लोरी अंतर्धान ,
भौंरे तितली सब गये ना जाने कौन दिसावर,
घटाएं बरसती नहीं, कोयल पपीहा मूक सभी ।

नंदन वन की वो भीनी-भीनी मतवाली सौरभ ,
बन मधु स्मृति सी मन मंजुषा में क्यों कैद हुई,
वर्णपट अब सजते नहीं जा काव्य क्षितिज,
पायल भी नीरव ,ओस निरीह ,पाखी उदास ।

मेरे भावों की सहचरी क्यों मूक बने बैठी हो,
आजाओ खोल पटल छलका दो काव्य सरस ,
ओ मेरी कविता, मुझसे विमुख न  होना तुम ,
मेरे गीतों में ढल जाना बन नए बोल नव धुन ।

           कुसुम कोठारी।

दुल्हन का रूप

दुल्हन का रूप

झुमर झनकार, कंगन खनका
जब राग मिला मन से मन का,
मोती डोला, बोली माला बल खाके  ,
अब सजन घर जाना गोरी शरमा के ,
चमकी बिंदिया ,खनकी पायल
पिया का दिल हुवा अब घायल ,
नयनों की यह  "काजल "रेखा
मुड़-मुड़ झुकी नजर से देखा ,
नाक की नथनी डोली ,
मन की खिडकी खोली, 
ओढ़ी चुनरिया धानी-लाल
बदल गई दुल्हन की चाल,
कैसा समय होता शादी का
रूप निखरता हर बाला का ।

         कुसुम कोठारी ।

Thursday 29 August 2019

चाॉ॓द कटोरा

.          चांद कटोरा

चंचल किरणें  शशि की
झांक रही थी पत्तियों से ,
उतर आई अब मेरे आंगन ,
जी करता इनसे अंजलि भर लूं
या  फिर थाली भर-भर रख लूं ,
सजाऊं घर अपना इन रजत रश्मियों से ,
ये विश्व सजाती ,मन को भाती
धरा पे बिखरी - बिखरी जाती
खेतों, खलिहानों ,पनघट , राहें ,
दोराहे , छत , छज्जे ,पेड़, पौधे
वन-उपवन डोलती फिरती
ये चपल चंद्रिकाऐं बस अंधेरों से खेलती ,
पूर्व में लाली फैलने से पहले 
लौट जाती अपने चॅ॔दा के पास
सिमटती एक कटोरे में चाॅ॔द कटोरे में ।

             कुसुम कोठारी ।

Saturday 24 August 2019

विश्वेश्वर

.               " विश्वेश्वर"

वो है निर्लिप्त निरंकार वो प्रीत क्या जाने
ना राधा ना मीरा बस " रमा " रंग है राचे,
आया था धरा को असुरो से देने मुक्ति,
आया था आते कलियुग की देने चेतावनी,
आया था देने कृष्ण बन गीता का वो ज्ञान,
आया था  समझाने कर्म की  महत्ता,
आया था त्रेता के कुछ वचन करने पुरे,
आया जन्म लेकर कोख से ,         
इसलिये रचाई बाल लीलाऐं नयनाभिराम ,
सांसारी बन आया तो रहा भी
बन मानव की दुर्बताओं के साथ,
वही सलौना बालपन ,वही ईर्ष्या,
वही मैत्री ,वही शत्रुता ,वही मोह
वही माया वही भोग वही लिप्सा ,अभिलाषा ,
वही बदलती मनोवृति,
जो कि है मानव के नैसर्गिक गुण ।
वो आया था जगाने स्वाभिमान ,
सिखाने निज अस्तित्व हित संघर्ष करना,
मनुष्य सब कुछ करने में है सक्षम ,
ये बताने आया प्रत्यक्ष मानव बन ।
नही तो बैठ बैकुंठ में सब साध लेता,
क्यों आता अजन्मा इस धरा पर ,
हमे समझाने आया कि सब कुछ
तू कर सकता ,नही तू नारायण से कम,
बस मार्ग भटक के तू खोता निज गरिमा,
भूला अंहकार वश तूं बजरंगी सा
अपनी सारी पावन शक्तियां । 
                                         
            कुसुम कोठारी।

Thursday 22 August 2019

बन रे मन तूं चंदन वन

बन रे मन तूं चंदन वन

बन रे मन तूं चंदन वन
सौरभ का बन अंश-अंश।

कण-कण में सुगंध जिसके
हवा-हवा महक जिसके
चढ़ भाल सजा नारायण के
पोर -पोर शीतल बनके।

बन रे मन तूं चंदन वन।

भाव रहे निर्लिप्त सदा
मन में वास नीलकंठ
नागपाश में हो जकड़े
सुवास रहे सदा आकंठ।

बन रे मन तूं चंदन वन ।

मौसम ले जाय पात यदा
रूप भी ना चितचोर सदा
पर तन की सुरभित आर्द्रता
रहे पीयूष बन साथ सदा।

बन रे मन तूं चंदन वन ।

घिस-घिस खुशबू बन लहकूं
ताप संताप हरूं हर जन का
जलकर भी ऐसा महकूं,कहे
लो काठ जला है चंदन का।

बन रे मन तूं चंदन वन ।।

     कुसुम कोठारी।

Monday 19 August 2019

नदियों का तांडव

नदियों का तांडव

प्नलयंकारी न बन
हे जीवन दायिनी,
विनाशिनी न बन
हे सिरजनहारिनी,
कुछ तो दया दिखा
हे जगत पालिनी,
गांव के गांव
तेरे तांडव से
नेस्तनाबूद हो रहे,
मासूम जीवन
जल समाधिस्थ हो रहे,
निरीह पशु लाचार
बेबस बह रहे,
निर्माण विनाश में
तब्दील हो रहा,
मानवता का संहार देख
पत्थर दिल भी रो रहा,
कहां है वो गिरीधर
जो इंद्र से ठान ले ?
जल मग्न होगी धरा
पुराणों मे वर्णित है!
क्या ये उसका प्राभ्यास है ?
हे दाता दया कर
रोक ले इस विनाश को,
सुन कर विध्वंस को
आतुर दिल रो रहा।

       कुसुम कोठारी।

Friday 16 August 2019

मौसम का संगीत

अवनि से अंबर तक दे सुनाई
मौसम का  रुनझुन  संगीत ,
दिवाकर के उदित होने का
दसों दिशाएं गाये मधुर गीत।

कैसी ऋतु बौराई मन बौराया
खिल-खिल जाय बंद कली ,
कह दो उड़-उड़ आसमानों से
रुत सुहानी आई मनभाई भली।

धरा नव रंगो का पहने चीर
फूलों में रंगत मनभावन
सजे रश्मि सुनहरी, द्रुम दल
पाखी करे कलरव,मुग्ध पवन ।

सैकत नम है ओस कणों से
पत्तों से झर झरते मोती ,
मंदिर शीश कंगूरे चमके
क्यों पावन बेला तूं खोती।

       कुसुम कोठारी।

Wednesday 14 August 2019

स्वतंत्रता दिवस पर माताओं से आह्वान

स्वतंत्रता दिवस पर माताओं से आह्वान।

राम कृष्ण की जननी हो
बस एक आज़ाद दे दो ,
ना दे पावो तो
एक भगतसिंह फिर से दे दो,
कमाल नहीं दे सकती
एक बार फिर गांधी दे दो ,
गांधी भी ना दे पांवों
तो कम से कम पटेल दे दो,
टैगोर नहीं देना ,ना देना
आज़ादी के परवाने सा
वो सुभाष वापस दे दो ,
सचिन नहीं दे पावों तो
एक शिवाजी वापस दे दो,
पी टी सी उषा ना दे पावो
पर झांसी सी रानी दे दो,
कुछ भी ना दे पाओ तो
कम से कम देश रक्षा हित
एक-एक सैनानी दे दो ,
ध्यान रहे कि कोख कभी
कोई देशद्रोही ना पैदा कर दे,
इंसा तो दे ना पाओ और
आंतकी को आंचल दे दो ।

     कुसुम कोठारी।

Friday 9 August 2019

कल तक बरखा मनभावन

कल तक बरखा मनभावन

ये सिर्फ कहानी नही
जगत का गोरख धंधा है,
कभी ऊपर कभी नीचे
चलता जीवन का पहिंया है।

कल तक बरखा मन भावन
आज बैरी बन सब बहा रही,
टाप टपरे टपक  रहे निरंतर
तृण,फूस झोपड़ी उजाड़ रही।

सिली लकड़ी धुआं-धुंआ हो
बुझी-बुझी आंखें झुलसा रही
लो आई बैरी बौछार तेजी से
अध जला सा चूल्हा बुझा रही।

काम नही मिलता मजदूरों को
बैरी जेबें खाली मुंह चिढा रही,
बच्चे भुखे,खाली पेट,तपे तन
मजबूर मां बातों से बहला रही।

            कुसुम कोठारी।

Monday 5 August 2019

रश्मियों से ख्वाब

मैं चुनती रही रश्मियां बिना आहट रात भर ,
करीने से सजाती रही एक पर एक धर ,
संजोया उन्हें कितने प्यार से हाथों में,
रख दूंगी धर के कांच के मर्तबान  में ,
सपना देखती रही रातों में जाग-जाग के ,
सजाती संवारती रही उनसे आंगन मन के ,
कितनी गोरी दुलारी दुधिया न्यारी-न्यारी,
पेड़ो की शाख से चुन-चुन के संवारी,
भोर का उजाला चुपके-चुपके आया ,
मेरी संकलित रश्मियों के मन भाया,
वे धीरे से जा समाई भोर के आंचल में ,
रश्मियों का साथ था  दिवस के उजास में ,
सूरज कहां कब अकेला है ज्योति देता
कितने सपनों का प्रकाश है उसमें रहता ।

कुसुम कोठारी।

Thursday 1 August 2019

रश्मियों की कलम

.                            रश्मियों की कलम से
                            एक नव प्रभात रच दूं,
                         खोल कर अंतर झरोखा
                      सूरज को स्वाधीन कर दूं ।

रजनी की निरवता में
मधुर स्वर मुखर कर दूं ,
सुधा चांदनी की कलम से
उद्धाम अंधकार हर दूं।

                      श्वास-श्वास पावन ऋचाएं
                           हर कलम संगीत भर दूं,
                          मन वीणा मधुर बज मेरी
                       विश्व को सरगम मैं कर दूं।

कर सरस काव्य सृजन
हे व्याकुल मन मेरे रसी तूं,
मन के कोमल भाव उकेरूं
कलम से बस कविता रच दूं।

          कुसुम कोठारी।