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Wednesday 28 October 2020

लालसा

 लालसा


है छलावा हर दिशा में 

धुंध के बादल उमड़ते 


दिन सजाता कामनाएं 

वस्त्र बहु रंगीन पहने 

श्याम ढ़लते लाद देते 

रत्न माणिक हीर गहने 

स्वप्न नित बनकर पखेरू 

बादलों के पार उड़ते।


बाँध कर के पाँख मोती 

मन अधीरा फिर भटकता 

नापता है विश्व सारा 

मोह जाले में अटकता 

भूलता फिर सब विवेकी 

ज्ञान के तम्बू उखड़ते।।


लालसा का दास मानव 

नाम की बस चाह होती 

अर्थ के संयोग से फिर 

भावना की डोर खोती 

द्वेष की फिर आँधियों में 

मूल्य के उपवन उजड़ते।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'


Thursday 22 October 2020

कर्तवय उनमुक्त

 कर्तव्य उन्मुक्त


नीलम सा नभ उस पर खाली डोलची लिये 

स्वच्छ बादलों का स्वच्छंद विचरण

अब  उन्मुक्त  हैं कर्तव्य  भार से 

सारी सृष्टि  को जल का वरदान 

 मुक्त हस्त दे आये सहृदय 

अब बस कुछ दिन यूं ही झूमते घूमना 

चाॅद  से अठखेलियां हवा से होड

नाना नयनाभिराम रूप मृदुल श्वेत 

चाँद  की चाँदनी में चाँदी सा चमकना

उड उड यहां वहां बह जाना फिर थमना

धवल शशक सा आजाद  विचरन करना

कल फिर शुरू करना है कर्म पथ का सफर

फिर  खेतों में खलिहानों में बरसना

फिर पहाडों पर नदिया पर गरजना

मानो धरा को सींचने स्वयं को न्योछावर होना। 


               कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


Sunday 18 October 2020

जीवन संतुलन

 जीवन संतुलन


चलो भूल जाओ अब सब कुछ

गाँठ खोल दो मन की

डर लगता क्यों देख रहे हो

तीर दृष्टि चितवन की।।


परायापन दुश्वार लगता

अलगाव भाव प्रतीति

अन्जाने हो जाती गलती 

जग की है यही रीति

आज छोड़ कर मतभेदों को

बात करें अर्जन की।।


जीवन की बीहड़ राहों पर

हाथ थाम कर चलना

अपनी राह कभी जो बदलो 

सूरज जैसे ढलना

नयी प्रभाती लेकर आना

रंगत चंपक वन की।।


मानव मन दुर्बल है जानों

कच्ची माटी फिसलन 

ढ़ोर हांकते चरवाहे सी

ढुलमुल डांडी डगमग

सदा प्रीत को मन संजोना

गुणवत्ता जावन की।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


Sunday 11 October 2020

अवगुंठन में बालाएं

 अवगुंठन में बालाएं

कोख कैद से बच आई ,

अवगुंठन लाचारी

कितना अभी सफर लम्बा,

लिए  वेदना भारी ।।


नैन में मोती समेटे

ऊपर से दृढ  दिखती

रात दिवस अन्यचित्तता

भाग्य लेखनी लिखती

कितने युगों तक करेगी

फटे हुए को कारी।।


उड़े नापले नीला नभ

कितनी आशा पाली

बंद आँखे सपनों भरी

खूली तिक्ता खाली ‌

मन से गढ़ती काष्ठ महल

स्वयं चलाती आरी।।


भय समेटेअस्मिता का

सहित वर्जना जीती

भरती है जग आँगन को

रह जाती है रीती

पत्ते ऊपर झरी ओस 

खाली होती झारी।।


 कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


Friday 9 October 2020

पनिहारी

 पनिहारी


चल सखी ले घट पनघट चलें 

राह कठिन बातों में निकले


अपने मन की कह दूं कुछ तो

कुछ सुनलूं तुम्हारे हृदय की

साजन जब से परदेश गये

परछाई सी रहती भय की

कुछ न सुहाता है उन के बिन

विरह प्रेम  की बस हूक जले।।


अब कुछ भी रस नहीं लुभाते

बिन कंत पकवान भी फीके

कजरा गजरा मन से उतरे

न श्रृंगार लगे मुझे नीके

 रैन दिवस नैना ये बरसते

श्याम हुवे कपोल भी उजले।।


कहो सखी अब अपनी कह दो

अपने व्याकुल मन की बोलो

क्या मेरी सुन दृग हैं छलके

अंतर रहस्य तुम भी खोलो

खाई चोट हृदय पर गहरी

या फिर कोई विष वाण चले।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


Thursday 8 October 2020

क्या लिखे लेखनी

 क्या लिखें लेखनी


पीड़ा कैसे लिखूँ

दृग से बह जाती है

समझे कोई न मगर

कुछ तो ये कह जाती है

तो फिर हास लिखूँ

परिहास लिखूँ

नहीं कैसे जलते

उपवन पर रोटी सेकूँ

मानवता रो रही 

मैं हास का दम कैसे भरूँ

करूणा ही लिख दूँ

बिलखते भाग्य पर

अपनी संवेदना 

पर कैसे कोई मरहम

होगा मेरी कविता से

कैसे पेट भरेगा भूख का

कैसे तन को स्वच्छ 

वसन पहनाएगी 

मेरी लेखनी

क्या लू से जलते 

की छाँव बनेगी 

किसी के सर पर छत

या आश्वासनों का 

कोरा दस्तावेज

नहीं ऐसी कहानी 

क्यों लिखूँ मैं

जो रोते को दहलादे

हँसते की हँसी चुराले

कविता दो निवाले 

खिला दो मानवता को

सिर्फ रोटी ही बन जाओ

नमक का जुगाड़

तो क्षुधा से व्याकुल 

कर ही लेगा ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


Friday 2 October 2020

विश्व के छाले सहला दो

 


 

विश्व के छाले सहला दो!

ओ चाँद कहां छुप बैठे हो

ढ़ूंढ़ रही है तुम्हें दिशाएं

अपनी मुखरित उर्मियाँ

कहाँ समेट कर रखी है

क्या पास तुम्हारे भी है 

माँ के जैसा कोई प्याला

जिसमें स्नेह वशीभूत हो

वो छुपा दिया करती थी

सबकी नजरों से बचाकर

मेरे लिए नवनीत चूरमा

पर वो होता था मेरे लिए

तुम किसके लिए सहेज रहे

ये रजत किरणें दीप्त सी

खोलदो उन्हें आजाद करदो

बिखेर दो तम के साम्राज्य पर

साथ ही अमि सुधा की कुछ बूंदें

टपकादो विश्व के जलते छालों पर।।


    कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday 1 October 2020

रव में नीरव

 रव में नीरव


नाव गर बँधी हो तो भी 

नदिया का बहना 

नाव तले रहता है 

जाना हो गर पार तो 

डालनी होती है

कश्ती मझधार में 

साहिलों पर रहने वालों को 

किनारों का कोई 

आगाज नही होता 

लड़ते भंवर से वो ही जाने 

किनारे क्या होते हैं

जो ढूंढ़ते एकांत 

स्वयं को खोजने

भटकते हैं बियावान में

कुछ नही पाते

स्वयं की तलाश में 

उतरते निज के जो अंदर

वो रव में भी नीरव पा जाते ।


    कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'