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Sunday 11 October 2020

अवगुंठन में बालाएं

 अवगुंठन में बालाएं

कोख कैद से बच आई ,

अवगुंठन लाचारी

कितना अभी सफर लम्बा,

लिए  वेदना भारी ।।


नैन में मोती समेटे

ऊपर से दृढ  दिखती

रात दिवस अन्यचित्तता

भाग्य लेखनी लिखती

कितने युगों तक करेगी

फटे हुए को कारी।।


उड़े नापले नीला नभ

कितनी आशा पाली

बंद आँखे सपनों भरी

खूली तिक्ता खाली ‌

मन से गढ़ती काष्ठ महल

स्वयं चलाती आरी।।


भय समेटेअस्मिता का

सहित वर्जना जीती

भरती है जग आँगन को

रह जाती है रीती

पत्ते ऊपर झरी ओस 

खाली होती झारी।।


 कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


7 comments:

  1. हे नारी ! तू तो राजपूतों की तरह आपस में ही लड़ते-लड़ते अपना साम्राज्य पुरुष रूपी तुर्क को सौंप बैठी.
    अब तो संगठित होकर अपने दुश्मनों का सामना कर !

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  2. भय समेटेअस्मिता का
    सहित वर्जना जीती
    भरती है जग आँगन को
    रह जाती है रीती
    पत्ते ऊपर झरी ओस
    खाली होती झारी।।
    - अद्भुत लेखन....नारी के उपर होते अत्याचार और अन्दर व्याप्त भय का अलंकृत वर्णन बहुत ही सुंदर तरीके से उभारा है आपने।
    साधुवाद ...

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  3. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 12 अक्टूबर 2020) को 'नफ़रतों की दीवार गहरी हुई' (चर्चा अंक 3852 ) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    #रवीन्द्र_सिंह_यादव


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  4. बहुत सुन्दर

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  5. प्रतीको के माध्यम से सुन्दर और सामयिक अभिव्यक्ति।

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