Followers

Saturday 28 November 2020

अप्सरा सी कौन


 अप्सरा सी कौन 


अहो द्युलोक से कौन अद्भुत

हेमांगी वसुधा पर आई।

दिग-दिगंत आभा आलोकित

मरुत बसंती सरगम गाई।।


महारजत के वसन अनोखे 

दप दप दमके कुंदन काया

आधे घूंघट चन्द्र चमकता

अप्सरा सी ओ महा माया

कणन कणन पग बाजे घुंघरु

सलिला बन कल कल लहराई।।


चारु कांतिमय रूप देखकर  

चाँद लजाया व्योम ताल पर

मुकुर चंद्रिका आनन शोभा

झुके झुके से नैना मद भर

पुहुप कली से अधर रसीले

ज्योत्सना पर लालिमा छाई।‌।


कौमुदी  कंचन संग लिपटी 

निर्झर जैसा झरता कलरव

सुमन की ये लगे सहोदरा

आँख उठे तो टूटे नीरव

चपल स्निग्ध निर्धूम शिखा सी

पारिजात बन कर  लहराई।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday 27 November 2020

दर्पण दर्शन


 दर्पण दर्शन


आकांक्षाओं के शोणित 

बीजों का नाश 

संतोष रूपी भवानी के

हाथों सम्भव है 

वही तृप्त जीवन का सार है।


"आकांक्षाओं का अंत "। 


ध्यान में लीन हो

मन में एकाग्रता हो 

मौन का सुस्वादन

पियूष बूंद सम 

अजर अविनाशी। 


शून्य सा, "मौन"। 

 

मन की गति है 

क्या सुख क्या दुख 

आत्मा में लीन हो 

भव बंधनो की 

गति पर पूर्ण विराम ही।


परम सुख,.. "दुख का अंत" । 


पुनः पुनः संसार 

में बांधता 

अनंतानंत भ्रमण 

में फसाता 

भौतिक संसाधन।

 यही है " बंधन"। 


स्वयं के मन सा 

दर्पण 

भली बुरी सब 

दर्शाता 

हां खुद को छलता 

मानव।

" दर्पण दर्शन "।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday 24 November 2020

भाव पाखी


 भाव पाखी


खोल दिया जब मन बंधन से

उड़े भाव पाखी बनके 

बिन झांझर ही झनकी पायल

ठहर ठहर घुँघरू झनके।


व्योम खुला था ऊपर नीला

आँखों में सपने प्यारे

दो पंखों से नील नाप लूँ

मेघ घटा के पट न्यारे

खुला एक गवाक्ष छोटा सा

टँगे हुए सुंदर मनके।।


अनुप वियदगंगा लहराती 

रूपक ऋक्ष खिले पंकज

जैसे माँ के प्रिय आँचल में 

खेल रहा है शिशु अंकज।

बिखर रहा था स्वर्ण द्रव्य सा  

बिछा है चँदोवा तनके।।


फिर घर को लौटा खग वापस

खिला खिला उद्दीप्त भरा।

और चहकने लगा मुदित 

हर कोना था हरा हरा।

खिलखिल करके महक रहे थे 

पात हरति हो उपवन के।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Saturday 21 November 2020

सुधि वरण


सुधि वरण
 

ढलती रही रात 

चंद्रिका के हाथों

धरा पर एक काव्य का

सृजन होता रहा

ऐसा अलंकृत रस काव्य

जिसे पढने

सुनहरी भास्कर

पर्वतों की उतंग

शिखा से उतर कर

वसुंधरा पर ढूंढता रहा

दिन भर भटकता रहा

कहां है वो ऋचाएं

जो शीतल चांदनी

उतरती रात में 

रश्मियों की तूलिका से

रच गई

खोल कर अंतर

दृश्यमान करना होगा

अपने तेज से

कुछ झुकना होगा

उसी नीरव निशा के

आलोक में

शांत चित्त हो

अर्थ समझना होगा

सिर्फ़ सूरज बन

जलने से भी

क्या पाता इंसान

ढलना होगा

रात  का अंधकार

एक नई रोशनी का

अविष्कार करती है

वो रस काव्य सुधा

शीतलता का वरदान है

सुधी वरण करना होगा ।।


        कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday 19 November 2020

प्रारब्ध और पुरुषार्थ


 प्रारब्ध और पुरुषार्थ


भूखी भूख विकराल दितिजा 

जीवन ऊपर भार बनी।

मीठी नदियाँ मिली सिंधु से

बूंद बूंद तक खार बनी।


बिन ऊधम तो जीवन देखा

रुकी मोरी का पंक है 

मसक उड़ाते पहर आठ जब

लगता तीक्ष्ण सा डंक है 

लद्धड़ बन जो बैठे उनकी

फटकर चादर तार बनी ।।


निर्धन दीन निस्हाय निर्बल

कैसा प्रारब्ध ढो रहे

अकर्मण्य भी बैठे ठाले 

नित निज भाग्य को रो रहे

टपक रहा था श्रम जब तन से 

रोटी का आधार बनी।


प्यासे को है चाह नीर की

कुआं खोद पानी लाए 

टूट जाते नीड़ पंछी के

जोड़ तिनके घर बनाए 

सफलता उन्हें मिली जिनकी

हिम्मत ही आधार बनी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday 17 November 2020

कवि के स्वर पन्नों पर


 कवि के स्वर पन्नों पर


नयन मुकुर हो आज बोलते

बंद होंठ में गीत हुए।।


अव्यक्त लेखनी में रव है

कौन मूक ये शब्द पढ़े

जब फड़फड़ा बुलाते पन्ने

मोहक लेख मानस गढ़े

फिर उभरती व्यंजनाएं कुछ

भाव शल्यकी मीत हुए।।


रूखे मरू मधुबन बनादे

काव्य सार बह के बरसे

खिले कुसुम आकाश मधुरिमा

तम पर चंदनिया सरसे

मृदुल थाप बादल पर बजती

मारुत सुर संगीत हुये।।


कविता जो रुक जाये तो फिर

कल्पक कब जीवित रहता

रुकी लेखनी द्वंद हृदय में

फिर कल्पना कौन कहता

मौन गूँजते मन आँगन में

कंपित से भयभीत हुये।।


   कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday 11 November 2020

दीपमाला


 दोहा छंद- दीप माला

1

नीले निर्मल व्योम से, चाँद गया किस ओर।

दीपक माला सज रही, जगमग चारों छोर।


2 दीप मालिका ज्योति से, झिलमिल करता द्वार।

आभा बिखरी सब दिशा, नही हर्ष का पार।


3 पावन आभा ज्योति का, फैला  पुंज प्रकाश।

नाच रहा मन मोर है, सभी दिशा उल्लास।। 


4दूर हुआ जग से तमस छाया है उजियार।

जन जन में बढ़ता रहे, घनिष्ठता औ प्यार।


5 स्वर्ण रजत सा दीप है, माँ के मंदिर आज।

 रिद्धि-सिद्धि घर पर रहे, करना पूरण काज।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday 8 November 2020

आज नया एक गीत लिखूं


 आज नया एक गीत लिखूँ मैं । 


           वीणा का गर

           तार न झनके 

           मन  का कोई

           साज लिखूँ मैं।

आज नया एक गीत लिखूँ मैं।


            मीहिका से

        निकला है मन तो 

          सूरज की कुछ

          किरण लिखूँ मैं।

 आज नया एक गीत लिखूँ मैं।


              धूप सुहानी

            निकल गयी तो  

               मेहनत का

           संगीत  लिखूँ मैं।

   आज नया एक गीत लिखूँ मै।


             कुछ खग के

           कलरव लिख दूँ

           कुछ कलियों की

           चटकन लिख दूँ

   आज नया एक गीत लिखूँ मैं।


           क्षितिज मिलन की

                मृगतृष्णा है 

               धरा मिलन का

              राग लिखूँ मैं ।

  आज नया एक गीत लिखूँ मैं ।


                 चंद्रिका ने

              ढका विश्व को 

              शशि प्रभा की

            प्रीत  लिखूँ मैं ।

    आज नया एक गीत लिखूँ मैं।


            कसुम कोठारी "प्रज्ञा"

Thursday 5 November 2020

ऐ चाँद


 ऐ चाँद तुम...


ऐ तुमचाँद

कभी किसी भाल पर

बिंदिया से चमकते हो 

कभी घूँघट की आड़ से

झाँकता गोरी का आनन 

कभी विरहन के दुश्मन 

कभी संदेश वाहक बनते हो

क्या सब सच है 

या है कवियों की कल्पना 

विज्ञान तुम्हें न जाने 

क्या क्या बताता है

विश्वास होता है 

और नहीं भी 

क्योंकि कवि मन को  

तुम्हारी आलोकित 

मन को आह्लादित करने वाली 

छवि बस भाती 

भ्रम में रहना सुखद लगता

ऐ चांद मुझे तुम 

मन भावन लगते 

तुम ही बताओ तुम क्या हो

सच कोई जादू का पिटारा 

या फिर धुरी पर घूमता 

एक नीरस सा उपग्रह बेजान।।

ऐ चांद तुम.....


      कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday 3 November 2020

अनासक्त निर्झर

 अनासक्त निर्झर


शैल खंड गिर चोटिल होते

फिर भी मोती झरते जैसे

चोट लगे कभी हृदय स्थल पर

सह जाते सब पीड़ा ऐसे।


किस पर्वत की ऊंची चोटी

बर्फ पसर कर लम्बी सोती

रेशम जैसे वस्त्र पहनती

धूप मिले तो कितना रोती

जन्म तुम्हारा हुआ पीर से

और बने निर्झर तुम तैसे।।


पथरीले सोपान उतरकर

रुकता नही निरंतर चलता

प्रचंड़ कभी गंभीर अथाह

धूप ताप में हरपल जलता

पर्वत का आँसू है झरना

नदी हर्ष की गाथा कैसे ।।


झील पोखरा सरिता बनकर

निज आख्या तक भी छोड़ जिये

एक पावनी गंगा बनकर 

फिर जाने कितने त्याग किये

लेना चाहे ले सकता है

नही नीर के कोई पैसे ।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'


Sunday 1 November 2020

एक ऐसा गीत

 कोई ऐसा गीत सुना दूँ

सुन के जिस को हर दिल झूमें

एक ऐसा गीत सुना दूँ।


बंद कली घूंघट पट खोले

भँवरे भी घायल हो डोले

कुहुक उठे  कोयलिया

ठहरी पायल बोले।


कोई ऐसा गीत सुना दूँ। 


जिन होठों से गीत हैं छूटे

उन पर तान सजा दू़

जिन आँखों से सपने रुठे

सपने सरस सजा दूँ।


कोई ऐसा गीत सुना दूँ ।


 


कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"