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Friday 27 November 2020

दर्पण दर्शन


 दर्पण दर्शन


आकांक्षाओं के शोणित 

बीजों का नाश 

संतोष रूपी भवानी के

हाथों सम्भव है 

वही तृप्त जीवन का सार है।


"आकांक्षाओं का अंत "। 


ध्यान में लीन हो

मन में एकाग्रता हो 

मौन का सुस्वादन

पियूष बूंद सम 

अजर अविनाशी। 


शून्य सा, "मौन"। 

 

मन की गति है 

क्या सुख क्या दुख 

आत्मा में लीन हो 

भव बंधनो की 

गति पर पूर्ण विराम ही।


परम सुख,.. "दुख का अंत" । 


पुनः पुनः संसार 

में बांधता 

अनंतानंत भ्रमण 

में फसाता 

भौतिक संसाधन।

 यही है " बंधन"। 


स्वयं के मन सा 

दर्पण 

भली बुरी सब 

दर्शाता 

हां खुद को छलता 

मानव।

" दर्पण दर्शन "।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

21 comments:

  1. Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका।

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  2. This comment has been removed by the author.

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  3. बहुत खूब प्रिय कुसुम बहन। स्वयं से बढ़ कर स्वयं को कोई नहीं जानता। पर इंसान खुद से ही नज़रें चुरा कर अपनी त्रुटियों को अनदेखा करता हुआ मन रूपी दर्पण को झुठलाता रहता है।विद्वता पूर्ण रचना जो संदेश परक भी है। हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🙏🌹🌹

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    1. बहुत-बहुत आभार आपका रेणु बहन ।
      आपकी विशिष्ट टिप्पणी सदा नव उर्जा देती है लेखन को और उत्साह वर्धन करती है।
      सस्नेह आभार।

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  4. जीवनदर्शन से परिपूर्ण बहुत सुंदर रचना 🙏💐🙏

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    1. बहुत बहुत आभार आपका।
      उत्साह वर्धन हुआ।

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  5. जीवन का सुंदर सार कितनी सुंदरता से कहा है । अति सुन्दर ।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका।
      सस्नेह।

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  6. ध्यान में लीन हो

    मन में एकाग्रता हो

    मौन का सुस्वादन

    पियूष बूंद सम

    अजर अविनाशी- बहुत ही खूबसूरत कृति, अध्यात्मिक और दार्शनिक दोनों का दिव्य दर्शन । सादर नमन ।

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    1. सुंदर व्याख्यात्मक टिप्पणी से रचना को नव प्रवाह मिला।
      बहुत बहुत आभार आपका सस्नेह

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  7. आपने जीवन के दर्शन करा दिए,कुसुम दी।

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    1. मोहक शब्द ज्योति बहन रचना सार्थक हुई सस्नेह।

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  8. बेहतरीन आध्यात्मिक रचना।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका।
      उत्साह वर्धन हेतु।
      सादर।

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  9. स्वयं के मन सा

    दर्पण

    भली बुरी सब

    दर्शाता

    हां खुद को छलता

    मानव।

    " दर्पण दर्शन "।

    सही कहा मन दर्पण सा है सब बोध होते हुए भी मानव खुद को छलता है....जीवन दर्शन कराती सून्दर संदेशपरक बहुत ही लाजवाब सृजन ।
    वाह!!!

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    1. मोहक सुधाजी! आपकी सुंदर प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
      सस्नेह।

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  10. मन की गति है

    क्या सुख क्या दुख

    आत्मा में लीन हो

    भव बंधनो की

    गति पर पूर्ण विराम ही

    बहुत बहुत सुन्दर , सराहनीय |

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    1. बहुत बहुत आभार आपका रचना के भावों को स्नेह देने के लिए।
      सादर।

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  11. बहुत बहुत आभार आपका।
    मैं चर्चा मैं उपस्थित रहूंगी।
    सादर।

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  12. ध्यान दुखों का अंत करता है ... मन को शांत करता है ...
    सुन्दर रचना है ...

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