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Saturday 29 May 2021

वीर शिरोमणि आल्हा ऊदल और पृथ्वीराज युद्ध


 *वीर शिरोमणि आल्हा ऊदलऔर पृथ्वीराज युद्ध।* 


आल्हा मध्यभारत में स्थित ऐतिहासिक बुन्देलखण्ड के सेनापति थे और अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। आल्हा के छोटे भाई का नाम ऊदल था ,वह भी वीरता में अपने भाई से बढ़कर ही था।

ऊदल अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु पृथ्वीराज चौहान से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए आल्हा अपने छोटे भाई की वीरगति की खबर सुनकर अपना आपा खो बैठे और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े आल्हा के सामने जो आया मारा गया 1 घण्टे के घनघोर युद्ध की के बाद पृथ्वीराज और आल्हा आमने-सामने थे दोनों में भीषण युद्ध हुआ पृथ्वीराज चौहान बुरी तरह घायल हुए, आल्हा के गुरु गोरखनाथ के कहने पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया ।

बुन्देलखण्ड के ये महा योद्धा अमर हो गये आज तक उनकी वीरता के चर्चे गीतों छंदों में गाए जाते हैं।


 *आल्हा छंद आधारित काव्य सृजन।* 

 

दोहा:-

नीलभुजा माँ शारदे, रखो कलम का मान।

आल्हा रचना चाहती, सम्मुख बैठो आन ।।

वंदन कर गुरु पाद में, श्रीगणेश हो काज।

ओज भरा कर दूँ सृजन, यही भावना आज।।


वे बुंदेला के सेनापति,

आल्हा वीर शिरोमणि एक।

वीर अनुज सम ऊदल भ्राता,

आज लिखूँ उन पर कुछ नेक।।१।। 


दोनों ही थे देश उपाशक,

राजा परमल देते स्नेह । 

दसराज पिता माता देवल,

जिनका दसपुरवा में गेह।।२।।


उनका शोर्य अतुल अनुपम था,

दोनो अवतारी से  वीर। 

भीम युधिष्ठिर कहलाते थे,

रिपु  छाती को देते चीर।।३।।


पृथ्वीराज नृपति अजमेरी,

सैना ले आये चंदेल। 

ऊदल अगवाई कर बढ़ते,

जैसे खेले कोई खेल।।४।। 


पृथ्वीराज बड़े योद्धा थे,

नभ तक फैला उनका नाम।

राव सभी थर्राते उनसे, 

चढ़ आये चंदेला धाम।।५।।


नृप परिमल भयभीत हुए पर,

जोश भरा ऊदल में तेज।

ईंट बजा दूँगा मैं सबकी,

मृत्यु बने रिपुओं की सेज।।६।।


बैरी पर चढ़ने वो दौड़ा,

दल बल पैदल हस्ती घोट।

अस्त्र सुशोभित सौष्ठव दमका,

रण भेरी डंके की चोट।।७।।


युद्ध भयंकर टनटन शायक,

शत्रु रुधिर का करती पान। 

ऊदल में बिजली सी बहती,

खचखच काटे मुंड़ सुजान।।८।।


भाल प्रथम गिरने से पहले,

अन्य उड़े ज्यों अंधड़ पात।

मृत तन  से भूमि टपी सारी,

रक्त भरे  बिखरे थे गात।।९।।

 

बाहु सहस्त्रा चलते भारी,

तन के भाव नही थे क्लांत।

ऊदल जैसे तांडव बनता,

चौहानी सैनिक थे श्रांत।।१०।।


पृथ्वीराज स्वयं फिर आये,

ऊदल तन में रक्त उबाल।

दोनों हाथी से बलशाली,

दोनों चलते मारुति चाल।।११।।


रक्तिम आँखों देख रहे थे,

दोनों ही थे वीर महान।

अल्प क्षणों करवाल रुके से,

सिंह मृगाशन धीर महान।।१२।।


दोहा:-

श्वांसे चलती धोंकनी, आयुध करते शोर ।

तोल रहे लोहित नयन,युद्ध छिड़ा  घनधोर।।


तलवारे झन्नाई भारी, 

गूंजा भीषण आहत नाद।

टूट वहाँ चट्टाने बिखरी, 

अश्व खड़े थे पिछले पाद ।।१३।।


व्योम अवनि तक विद्युत कौंधी,

पाखी उड़कर भागे दूर।

दहला भय से जन-जन का मन,

मेघाक्षादित मिट्टी भूर।।१४।।


दीर्घ रथी चोटों पर चोटें, 

काल थमा था विस्मित आज।

अपनी चेत नहीं दोनों को, 

उनको प्यारा राष्ट्र सुराज।।१५।।


अंतिम निर्णय तक लड़ना था, 

मौत सखी सा रखते भाव। 

चिंता अपने तन की भूले, 

खड्ग करे घावों पर घाव।।१६।।


युद्ध दिखे दावानल जैसा, 

मौत लपकती हर तलवार।

धूं धूं वीर सिपाही जलते, 

अग्नि बिना ही हाहाकार।।१७।।


हार विजय का भेद समझने, 

सूर्य गया ज्यों ढलना भूल।

दो इन्द्रों का साहस देखे, 

कौन मिटेगा जड़ आमूल।।१८।।


ताड़ित टूट गिरी फिर ऐसी, 

गूंजी चौहानी ललकार।

देह धरा पर ऊदल घायल, 

चार दिशा में हाहाकार।।१९


परमल सेना क्लांत दुखी थी, 

शत्रु दिशा में जय जयकार।

पृथ्वीराज नमन सिर करते, 

योद्धा देखा पहली बार।।२०।।


दोह,:-

और साँझ ढल ही गई, रवि अप्रभ निस्तेज ।।

मूक हुई चारों दिशा, वीर शयन भू सेज।।


हरकारा हय पर चढ़ दौडा, 

बात सुनाई रण की खार।

आँख फटी सी जिव्हा जकड़ी, 

खौला रक्त उछाले मार।।२१।।


भ्रात अनुज प्राणों से प्यारा, 

खेत रहा ये कैसी घात।

वीर अजेय महान कहे सब, 

कैसे  मन स्वीकारे बात।।२२।।


क्रोध उठा थर थर थर्राया, 

हाथ उठाली फिर करवाल।

नाम बतादो उस अधमी का,

काटूँगा जा उसका भाल।।२३।।


शांत रहें हे वीर शिरोमणि, 

साँझ समय है युद्ध विराम।

कल का सूरज रण में उतरें, 

रोकें तब तक अपना भाम।।२४।।


घायल नाहर विचलित घूमे, 

काल निशा कब होगी अंत।

घोर व्यथा आलोड़ित तन मन,

टीस उठाव हृदय अभ्यंत।।२५।।


जैसे तैसे रात बिताई, 

शस्त्र लिये निकला बलवीर।

सौ सौ टुकड़े कर डालूंगा,

रक्त बहा दूँ छाती चीर।।२६।।


चढ़ घोड़े पर एड लगाई, 

उड़ता सा पहुँचा रण क्षेत्र।

श्वास मचलती ज्वार सलिल सी,

लोहित से थे दोनों नेत्र।।२७।।


आँखें ढूंढ़ रही पृथ्वी को, 

खच खच काट रहा हर शीश।

कंठ प्रचंड सटाल दहाड़ा, 

ओट छुपा क्यों भीरु अधीश।।२८।।


दोहा:-

आल्हा थे भीषण कुपित, जैसे जलती आग।

सौ-सौ योद्धा मारते, रण भू खेले फाग।।१

कट कट चौहानी गिरे, पृथा हुई थी लाल।

हाथी हय चिंघाड़ते,जैसे घूमें काल।।२।।


सैन्य हुआ निर्बल सा हारा, 

रुक के ठहरी सारी सृष्टि।

ले हुंकार सुभट फिर आये, 

केशी जैसी क्रोधित दृष्टि।।२९।।


दो व्याघ्र समक्ष खड़े निर्भय, 

मार छलाँग प्रथम अब कौन।

सारी सेना निस्तब्ध रुकी, 

और दिशाएँ साधे मौन।।३०।।


भाई का हत्यारा सम्मुख, 

देख जली मन में फिर आग।

आल्हा तलवार उठा दौड़े, 

शत्रु दिखे ज्यों काला नाग।३१।।।


पृथ्वीराज सुभट थे योद्धा, 

तोल रहे बैरी की चाल।

ज्यों उछली आल्हा की काया, 

चौहानी चमकी करवाल।।३२।।


दोहा:-

तेज तान से दो सुभट, खेल रहे ज्यों खेल।

तड़ तड़ तलवारें तड़ित, रक्त रंग थे चेल।।


वार करे आपस में दोनों,

साथ सटकते सौ सौ वीर।

भारी थे दूजे पर योद्धा,

आँखों से भी चलते तीर।।३३।।


रक्त लुहान कलेवर दिखते,

लाल रतन से झूमे आज।

अपनी आन बड़ी दोनों को,

वर्तुल जैसे घूमे आज।।३४।।


और तभी सौ हाथी बल से

एक किया आल्हा ने वार।

हाथों से रजपूत सुभट के 

टूट गिरी भारी तलवार।।३५।।


हाथ उठा आल्हा का ऊपर

तेज प्रवाह उकट दे शीश

वाणी गूंजी ठहरो  बेटे

प्राण दया दो बन तुंगीश।।३६।।


गुरु वाणी सुन वीर रुका जब,

सम्मुख थे गुरु गोरखनाथ।

शूर क्षमा कर दो तुम इनको,

पृथ्वी चाहे पृथ्वी साथ।।३७।।


करने इनको काम बहुत से,

इनके हाथ धरा की लाज।

हो रजपूत सुभट तुम दोनों

देश हितार्थ करो बहु काज।।३८।।


नतमस्तक हो गुरु के आगे,

आल्हा ने फैंकी तलवार।

छोड़ चला वो फिर रण भू को,

त्याग दिया घर नृप संसार।।३९।।


आल्हा वीर अमर कहलाते,

उत्तर भारत में यश गान‌

गाँव नगर में गाथा उनकी,

राज्य महोबा के सम्मान।।४०।।


समापन दोहे:-

अमर हुए इतिहास में, बुंदेला के वीर ।

गाथा गाते भागता, जन जन-मन से भीर।।

आल्हा ऊदल पर किया, छंद वीर रस गान।

भूल चूक करिये क्षमा, अल्प ज्ञान है जान।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday 27 May 2021

कांची काया मन अथीरा


 काची काया मन अथिरा



काची काया मन भी अथिरा ,

हींड़ चढा हीड़े जग सारा ।

दिखे सिर्फ थावर ये माया,

थिर थिर डोले है जग सारा ।


रोक हींड़ोला मध्य झाँका ,

अंदर ज्यादा ही कंपन था ।

बाहर गति मंथर हो चाहे,

मानस अस्थिर भूड़ोलन था ।


 गुप्त छुपी विधना की मनसा,

जान न पाये ये जग सारा ।

काची काया मन भी अथिरा ,

हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।।


जलावर्त  में मकर फसी है,

चक्रवात में नभचर पाखी

मानव दोनों बीच घिरा है ,

जब तक जल न भये वो लाखी।


कहाँ देश को गमन सभी का ,

जान न पाये ये जग सारा ।

काची काया मन भी अथिरा ,

हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday 25 May 2021

ताँका विधा में चाँद


 ताँका विधा में चाँद


चाँद का नूर

बहका-बहका सा

काली घटा से 

झांकता सकुचाया

मुखर चंद्रिकाएं।


 रजत रश्मि

चपल चंद्रिकाएं

श्यामल घटा

चीर कर अंधेरा

निकला कलानिधि।


ऐ चाँद तुम

बिंदी से चमकते

नभ के भाल 

झांकता गोरी मुख

ज्यों घूंघट आड़ से।


नूर यामा का

बहका-बहका सा

स्याह मेघों से 

निकला सकुचाया

चपल कलानिधि ।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday 23 May 2021

मेरे मन की ओ कविता


 मेरे मन की ओ कविता।


काव्य सरस सा रचना चाहूँ

प्राची की तू बन सविता।

जाने कैसे हुई तिरोहित,

मेरे मन की ओ वनिता ।


भाव हृदय के मूक हुए हैं

सहचरी मेरी क्यों रुठी।

आज गगरिया छलका दो तुम

गीतों की लय भी टूटी।

टूटे पंखों कैसे लिख दूँ 

बना लेखनी वो कविता ।।


नंदन वन की भीनी सौरभ

मंजुषा में बंद ज्यों है।

काव्य क्षितिज भी सूना-सूना

वर्णछटा फीकी क्यों है।

झरने नीरव रुकी घटाएं

धीमी-धीमी है सरिता।।


अंतर लेख उतर कर नीचे

आज शल्यकी में ढ़ल जा।

ओ मेरे अंतस की गंगा

पावस ऋतु बन कर फल जा।

मंदिर का दीपक बन जलना

करे प्रार्थना ये विनिता।।


भाव सीपिज अवली में बाँधु

सुधा चुरा लूँ चँदा से।

चंचल किरणे रचूँ पत्र पर

करतब सीखूँ वृंदा से।

चटकी कलियाँ फूल खिला दूँ

पनधट बोध लिखूँ भविता।।


       कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday 18 May 2021

पीले पत्तों सी परिणति


 पीले पत्ते सी परिणति


आलोड़ित है काल जगत का

थिर-थिर डोले त्रास भरे।

अविदित सी देखो यह विपदा 

कैसे कोई धीर धरे।।


इक हिण्ड़ोले सा ये जीवन

कभी इधर औ कभी उधर‌।

धक्का देता समय महाबलि

कांप उठे भू धरणीधर।

पीले पत्ते जैसी परिणति

संग हवा के दूर गिरे।।


खेल खेलती विधना औचक

मानव बन कंदुक लुढ़के

गर्व टूटके बिखरा ऐसा

इक दूजे का मुंह तके।

मोम बनी है पिघली पीड़ा

ठंडी होकर ओस झरे।।


एक घड़ी की नहीं चेतना

लोभ मोह में भटका है

खाली हाथों ही जाना है

दाम अर्थ क्यों अटका है

श्वासों में अटकी है उलझन

उर्जा प्राणायाम करे।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday 14 May 2021

बन रहे मन तू चंदन वन


 बन रे मन तू चंदन वन

सौरभ का बन अंश-अंश।


कण-कण में सुगंध जिसके 

हवा-हवा महक जिसके

चढ़ भाल सजा नारायण के

पोर -पोर शीतल बनके।


बन रे मन तू चंदन वन।


भाव रहे निर्लिप्त सदा

मन वास करे नीलकंठ

नागपाश में हो जकड़े

सुवास रहे सदा आकंठ।


बन रे मन तू चंदन वन ।


मौसम ले जाय पात यदा

रूप भी न चित्तचोर सदा

पर तन की सुरभित आर्द्रता

पीयूष रहे बन साथ सदा।


बन रे मन तू चंदन वन ।


घिस-घिस खुशबू बन लहकूँ

हर जन का ताप संताप हरूँ 

तन मन से बन श्री खंड़ रहूँ 

दह राख बनूँ फिर भी महकूँ ।।


बन रे मन तू चंदन वन ।।


     कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday 12 May 2021

निसर्ग का उलाहना


 निसर्ग का उलहाना


लगता पहिया तेज चलाकर

देना है कोई उलहाना

तुमने ही तो गूंथा होगा

इस उद्भव का ताना बाना ।।


थामे डोर संतुलन की फिर

जड़ जंगम को नाच नचाते 

आधिपत्य उद्गम पर तो क्यों

ऐसा  नित नित झोल रचाते  

काल चक्र निर्धारित करके

भूल चुके क्या याद दिलाना।


कैसी विपदा भू पर आई

चंहु ओर तांडव की छाया

पैसे वाले अर्थ चुकाकर

झेल रहे हैं अद्भुत माया

अरु निर्धन का हाल बुरा है

बनता रोज काल का दाना।।


कैसे हो विश्वास कर्म पर

एक साथ सब भुगत रहे हैं

ढ़ाल धर्म की  टूटी फूटी

मार काल विकराल सहे हैं

सुधा बांट दो अब धरणी पर

शिव को होगा गरल पिलाना।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Monday 10 May 2021

अटल निश्चय


 अटल निश्चय


कालिमा से नित्य लड़ने

आग आलोकित जगाकर

रश्मियों की ओज से फिर 

जगमगायेगा चराचर।।


श्याम वर्णी मेघ वाहक

जल लिए दौड़े चले जब

बूंद पाकर  सृष्टि सजती

चक्र चलता है यही तब

बीज के हर अंकुरण में

आस जगती दुख भुलाकर।।


बांध कर के ज्ञान गठरी

कौन चल पाया जगत में

बांटने से जो बढ़े धन

सुज्ञ ने गाया जगत में

सुप्त मेधा की किवाड़ीं

सांकलें खोलो हिलाकर।।


कार्य हो आलस्य तजकर

और निश्चय हो अटल जब

रुक न सकता कारवां भी

दूर होते शूल भी तब

सूर्य शशि शिक्षित करें नित

दीप सबके हिय जलाकर।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday 8 May 2021

माँ



माँ

जब भी कोई दुविधा आती

याद मुझे माँ की आये।


प्रथम पाठशाला जीवन की

नैतिकता का पाठ दिया।

सुसंस्कार भरकर जीवन में 

सुंदरता से गाठ लिया।

कंक्रीट राह पर चल पाएं

दुख में कभी न घबराये।।


वात्सल्य साथ में अनुशासन

सीख सदा हित की पाई।

हर गलती पर पास बिठाकर

प्यार भरी झिड़की खाई।

ऊंच नीच का भान कराती

घावों पर रखती फाये।।


अपने दुख का भान नही कभी

बच्चों का ही सुख देखा

कभी नही वो कष्ट दिखाती

न भाल चिंता की रेखा।

लिटा गोद में सिर सहलाती

थपकी दे लोरी गाये।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'।

Wednesday 5 May 2021

विहान आयेगा


 विहान आयेगा।


रात हो कितनी भी काली

खो चुकी दिवा की लाली

समय पर भानु का उदभव 

रोकना उसको असंभव।।


हो  कभी  जो काल दुष्कर

बनना हो स्वयं धनुष्कर

विजय भी  मिलेगी निश्चित

पुनः सब होगा अधिष्ठित।।


क्यों क्लांत बैठे हार कर

उठ भाव में आवेश भर 

चमन उजड़ा कब रहेगा

हरित हो अंकुर खिलेगा।।


संग्राम है जीवन अगर 

लड़ना ही होगा मगर

जीत तक लड़ते रहेंगे

क्यों पराजय की कहेंगे।।


मनुज कभी रुकता नहीं

बाधाओं से झुकता नहीं

कल नई फिर नींव धरकर 

लायेगा खुशियाँ भरकर।।


       कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday 1 May 2021

आई साँझ गुनगुनाती


 आई साँझ गुनगुनाती


वायु का संदेश आया 

झूम कर गाकर सुनाये

आ रहे हैं श्याम घन अब

भूमि की तृष्णा बुझाये।


गा रही है लो दिशाएँ

पाहुना सा कौन आया

व्योम बजती ढोलके जब

राग मेघों ने सुनाया

बाग में लतिका लहर कर

तरु शिखर को चूम आये।


भानु झांका श्याम पट से

एक बदरी छेड़ आई

बूँद बरसी स्वर्ण मुख पर

सात रंगी आभ छाई

साँझ फिर से गुनगुनाती

छाप खुशियों की बनाये।


दिन चला अवसान को अब

घंटियाँ मन्दिर बजी है

दीप जलते देहरी पर

आरती थाली सजी है

आज माता को बुलावा

पात कदली के सजाये।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'