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Wednesday 12 May 2021

निसर्ग का उलाहना


 निसर्ग का उलहाना


लगता पहिया तेज चलाकर

देना है कोई उलहाना

तुमने ही तो गूंथा होगा

इस उद्भव का ताना बाना ।।


थामे डोर संतुलन की फिर

जड़ जंगम को नाच नचाते 

आधिपत्य उद्गम पर तो क्यों

ऐसा  नित नित झोल रचाते  

काल चक्र निर्धारित करके

भूल चुके क्या याद दिलाना।


कैसी विपदा भू पर आई

चंहु ओर तांडव की छाया

पैसे वाले अर्थ चुकाकर

झेल रहे हैं अद्भुत माया

अरु निर्धन का हाल बुरा है

बनता रोज काल का दाना।।


कैसे हो विश्वास कर्म पर

एक साथ सब भुगत रहे हैं

ढ़ाल धर्म की  टूटी फूटी

मार काल विकराल सहे हैं

सुधा बांट दो अब धरणी पर

शिव को होगा गरल पिलाना।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

19 comments:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 14-05-2021) को
    "आ चल के तुझे, मैं ले के चलूँ:"(चर्चा अंक-4060)
    पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित है.धन्यवाद

    "मीना भारद्वाज"

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    1. पुनश्च: कृपया चर्चा अंक-4065 पढ़े ।

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    2. बहुत बहुत आभार आपका।
      मैं उपस्थित हो आई ।
      सादर।

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  2. Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका शिवम् जी।

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  3. बहुत ही बेहतरीन। एक-एक शब्द वर्तमान परिस्थिति की व्यथा बता रहे हैं।

    "...
    पैसे वाले अर्थ चुकाकर
    झेल रहे हैं अद्भुत माया
    अरु निर्धन का हाल बुरा है
    बनता रोज काल का दाना।।
    ..."
    .......प्रत्येक बुरी परिस्थिति के दौर का यह शाश्वत सत्य है।

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    1. सुंदर समर्थन देती प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
      सादर आभार आपका।

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  4. बहुत बहुत सुन्दर

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आलोक जी।
      सादर।

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  5. बेहतरीन लेखन

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    1. सस्नेह आभार आपका।
      ब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।
      सस्नेह।

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  6. बहुत सुंदर नवगीत सखी।

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    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका सखी उत्साहवर्धन करतीं सुंदर प्रतिक्रिया।
      सस्नेह।

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  7. बहुत सुंदर

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    1. बहुत बहुत आभार आपका रचना सार्थक हुई।
      ब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।
      सादर।

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  8. कैसे हो विश्वास कर्म पर

    एक साथ सब भुगत रहे हैं

    ढ़ाल धर्म की टूटी फूटी

    मार काल विकराल सहे हैं

    सुधा बांट दो अब धरणी पर

    शिव को होगा गरल पिलाना।।

    ..सच्चाई को दर्शाती यथार्थपूर्ण कृति...

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    1. विस्तृत टिप्पणी से रचना को विस्तार मिला जिज्ञासा जी।
      बहुत बहुत आभार आपका।
      सस्नेह।

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  9. और अंत में ये अभ‍िलाषा क‍ि---सुधा बांट दो अब धरणी पर

    शिव को होगा गरल पिलाना।। हृदय से न‍िकली पुकार फिर क्‍योंकर वे ना सुनेंगे... कुसुम जी..अद्भुत

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  10. अलकनंदा जी आपकी भाव भीनी विस्तृत टिप्पणी से रचना का मान बढ़ा और मेरा उत्साह वर्धन हुआ।
    सस्नेह।

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