Followers

Tuesday 31 December 2019

नव वर्ष मंगलमय हो

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं


नवल ज्योति की धवल ज्योत्सना
स्वर्णिम रश्मियों  से सज आई ,
विगत वर्ष को जाते जाते दे दें
देखो आज भाव भरी विदाई,
भूलें वो सब  जो था दुखदायी ,
नव प्रभात का स्वागत  करलें ,
अंजुली भर  लें स्नेह  धूप  से ,
बांटे प्रेम भरी सौगातें , पीड़ा ले लें
कुछ फूल खिलादें, पेड़ लगादे ,
निर्बल  निर्धन  को सहारा दे दें ,
ऐसा मंजुल नव वर्ष  मनालें ।।

              कुसुम कोठारी।

Monday 30 December 2019

कुसुम की कुण्डलियाँ -३

कुसुम की कुण्डलियाँ-३

9 आँचल
फहराता आँचल उड़े, मधु रस खेलो फाग
होली आई साजना,  आज सजाओ राग ,
आज सजाओ राग , कि नाचें सांझ सवेरा ,
बाजे चंग मृदंग ,खुशी मन झूमे मेरा ,
रास रचाए श्याम, गली घूमे लहराता
झुकी लाज सेआंख , पवन आँचल फहराता।।

10 कजरा
काला कजरा डाल के , बिंदी लगी ललाट
रक्तिम कुमकुम से सजे , बालों के दो पाट ,
बालों के दो पाट ,लगा होठों पर लाली
बेणी गजरे डाल ,चली नारी मतवाली ,
लाल लाल है गाल , नैन सुख देने वाला ,
अँजे सुबह औ शाम ,आंख में अंजन काला।

11 चूड़ी
चूड़ी पहनू कांच की , हरी लाल सतरंग ,
फागुन आया ओ सखी,ढ़ेर बजे है चंग,
ढ़ेर बजे है चंग , नशा सा देखो छाया,
फाल्गुन का ये मास ,नया पराग ले आया
साजन  आना आज ,  खिलाउं हलवा पूड़ी
छनकी पायल पैर , हाथ में छनके चूड़ी।।

12 झुमका
डाली पत्र विहीन है , पलास शोभा रुक्ष ,
लगे सुगढ़ स्वर्ण झुमका , विपिन सजे ये वृक्ष  ,
विपिन सजे ये वृक्ष , बिछे धरणी पर  ऐसे ,
गूँथें तारे चाँद , परी के आँचल जैसे ,
मोहक सुंदर रूप , सजी बगिया बिन माली,
बिछे धरा पर पूंज , सुनहरी चादर डाली।

कुसुम कोठारी

Sunday 29 December 2019

नव वर्ष का नव विहान

नव वर्ष का नव विहान!

आओ सब मिल करें आचमन।

भोर की लाली लाई
आदित्य आगमन की बधाई ,
रवि लाया एक नई किरण
संजोये जो,सपने सब हो पूरण,
पा जायें सच में नवजीवन ,
उत्साह की सुनहरी धूप का उजास
भर दे सब के जीवन में उल्लास ।
आओ सब मिल करें आचमन।

साँझ ढले श्यामल चादर
जब लगे ओढ़ने विश्व!
नन्हें नन्हें दीप जला सब
प्रकाश बिखेरो चहुँ ओर ,
दे आलोक, हरें हर तिमिर,
त्याग अज्ञान मलीन आवरण
सब ओढ ज्ञान का परिधान पावन।
आओ सब मिल करें आचमन।

मानवता भाव रख अचल,
मन में रह सचेत प्रतिपल,
सह अस्तित्व ,समन्वय ,समता ,
क्षमा ,सजगता और परहितता
हो सब के रोम रोम में संचालन
सब प्राणी पाये सुख,आनंद
बोद्धित्व का हो घनानंद।
आओ सब मिल करें आचमन।

लोभ मोह जैसे अरि को हरा
दे ,जीवन को समतल धरा ,
बाह्य दीप मालाओं के संग
प्रदीप्त हो दीप मन अंतरंग
जीवन में जगमग ज्योत जले,
धर्म ध्वजा सुरभित अंतर मन
सब जीव दया का पहन के वसन ।
आओ सब मिल करें आचमन।।

          कुसुम कोठारी ।

Saturday 28 December 2019

एक ओस बूंद का आत्म बोध


एक ओस बूंद का आत्म बोध

निलंबन हुवा निलाम्बर से ,
भान हुवा अच्युतता का, कुछ क्षण
गिरी वृक्ष चोटी ,इतराई ,
फूलों पत्तों दूब पर देख ,
अपनी शोभा मुस्काई ।
गर्व से अपना रूप मनोहर
आत्म प्रशंसा भर लाया ,
सूर्य की किरण पडी सुनहरी
अहा शोभा द्विगुणीत हुई !
भाव अभिमान के थे अब  उर्ध्वमुखी ।
भूल गई "मैं "अब निश्चय है अंत पास में ,
मैं तुषार बूंद नश्वर,भूली अपना रूप ,
कभी आलंबन अंबर का ,
कभी तृण सहारे सा अस्तित्व ,
पराश्रित ,नाशवान शरीर
या !"मैं "आत्मा अविनाशी 
भूल गई क्यों शुद्ध स्वरूप अपना।

              कुसुम कोठारी।

Friday 27 December 2019

कुसुम की कुण्डलियाँ-२

५ पायल
पायल तो नीरव हुई , पाखी हुए उदास ,
कैसे में कविता लिखूं , शब्द नहीं है पास,
शब्द नही है पास ,हृदय कागज है कोरा ,
सूना अब आकाश , बुझा है मन का तारा ,
लेखन रस से हीन  ,करे है मन को घायल
मुक्ता चाहे हार , घुंघरू चाहे पायल ।।

६ कंगन
कंगन खनका जोर से , गोरी नाचे आज ,
पायल औ बिछिया बजे , घर में मंगल काज
घर में मंगल काज ,क्षउठा ली जिम्मेदारी 
चूनर सुंदर लाल  , हरा लँहगा अति भारी
गले नौलखा हार , उसी से सजता आगँन
सारे घर की आन , लिए है दो दो कंगन ।।

७  बिंदी
मेरे भारत देश का , हिन्दी है श्रृंगार ,
भाषा के सर की बिँदी , देवनागरी  सार ,
देवनागरी सार , बनी है मोहक भाषा ,
बढ़े सदा यश किर्ति , यही मन की अभिलाषा
अंलकार का वास, शब्द के अभिनव डेरे
गहना हिन्दी डाल, सजा तू भारत मेरे ।।

८ डोली
डोली चढ़ दुल्हन चली , आज छोड़ घर द्वार ,
धुनक रही है ढोलकें, साथ मंगलाचार ,
साथ मंगलाचार , सखी साथी सब छूटे ,
मुंह न निकले बोल  , दृगों से मोती टूटे ,
सबका आशीर्वाद , रचे है कुमकुम रोली ,
धीरे धीरे साथ ,चले पिया संग ड़ोली।।

कुसुम कोठारी।

Thursday 26 December 2019

कुसुम की कुण्डलियाँ


कुसुम की कुण्डलियाँ

१ वेणी
वेणी बांधे केश की , सिर पर चुनरी धार ,
गागर ले घर से चली , चपल चंचला नार ,
चपल चंचला नार , शीश पर गागर भारी ,
है हिरणी सी चाल , चाल है कितनी प्यारी ,
आंखों में है लाज, चली मंद गति वारुणी  ,
देखे दर्पण साफ , फूल से रचती वेणी ।।

२ कुमकुम
चंदन कुमकुम थाल में ,  गणपति पूजूं आज ,
मंगल कर विपदा हरे, पूर्ण सकल ही काज ,
पूर्ण सकल ही काज , कि शुभ्र भाव हो दाता ,
रखें शीश पर हस्त , साथ हो लक्ष्मी माता ,
कहे कुसुम कर जोड़ , सदा मैं करती वंदन 
तुझ को अर्पण नाथ  ,खीर शहद और चंदन।

३ काजल
नयना काजल रेख है ,और बिॅ॑दी है भाल ,
बनठन के गोरी चली ,ओढ़ चुनरिया लाल ,
ओढ़ चुनरिया लाल , नाक में नथनी डोली ,
छनकी पायल आज , हिया की खिड़की खोली ,
कैसी सुंदर नार , आंख लज्जा का गहना ,
तिरछी चितवन डाल , बाण कंटीले नयना ।।

४ गजरा
सजधज नखराली चली , आज पिया के द्वार,
बालों में गजरा सजे , नख शिख है शृंगार,
नख शिख है शृंगार , आंख में अंजन ड़ाला ,
कान में झुमर सजे  ,कंठ  शोभित है माला ,
पिया मिलन की आस, झुके झुके नैत्र सलज
सुंदर मुख चितचोर , मृगनयनी चली सजधज।।

                 कुसुम कोठारी।।

Monday 23 December 2019

निराशा से आशा की ओर

निराशा से आशा की ओर

टूटे पँखो को ले करके
कैसे जीवन जीना हो
भरा हुआ है विष का प्याला
कैसे उस को पीना हो।

उन्मुक्त गगन में उड़ते थे
आंखों में भी सपने थे
धूप छांव आती जाती
पर वो दिन भी अच्छे थे
बेमौसम की गिरी बिजुरिया
कैसे पंख बचाना हो

टूटे पंखों को लेकर के
कैसे जीवन जीना हो

तप्त धरा है राहें मुश्किल
और पांव में छाले हैं
ठोकर में पत्थर है भारी
छाये बादल काले हैं
कठिन परीक्षा की घड़ियां है
फिर भी जोर लगाना हो

टूटे पंखों को ले करके
कैसे जीवन जीना हो।

सब कुछ दाव लगा कर देखो
तरिणि सिंधु में डाली है
नजर नहीं आता प्रतीर भी
और रात भी काली है
स्वयं बाजुओं के दम पर ही
कुछ खोना कुछ पाना हो।

टूटे पंखों को लेकर के
कैसे जीवन जीना हो।

कुसुम कोठारी।

Friday 20 December 2019

न्याय अन्याय

न्याय और अन्याय का कैसा लगा है युद्ध
एक जिसको न्याय कहे दूसरा उस से क्रुद्ध।
बिन सोचे समझे ,विवेक शून्य हो ड़ोले
आंखों पट्टी बांध कर हिंसा की चाबी खोले
पाने को ना जाने क्या है,सब कुछ ना खो जाए
हाथ मलता रह जाएगा जो चुग पंछी उड़ जाए
कोई लगा कर  आग दूर तमाशा देखे
अपना घर फूंक कर कौन रोटियां सेके
समय रहते संभल जाओ वर्ना होगा पछताना
स्वार्थ से ऊपर उठ देश हित का पहनो बाना।

                         कुसुम  कोठारी।

Wednesday 18 December 2019

सखी मन खनक-खनक जाए

सखी मन खनक-खनक जाए

सखी मन खनक-खनक जाए
दिशाएं भी  गुनगुनाए ।

मन की झांझर झनक रही है
रुनझुन-रुनझुन बोल रही है
छेडी सरगम मधुर रागिनी
हिय के भेद भी खोल रही है
अव्यक्त हवाओं के  सुर में
मन भी उड़ी-उड़ी जाए
सखी मन खनक खनक जाए।

प्रीत गगरिया छलक रही है
ज्यों  अमृत  उड़ेल रही  है
मन को घट  रीतो प्यासो है
बूंद - बूंद रस घोल  रही  है
ये कैसो है क्षीर सिन्धु सो
उलझ-उलझ मन जाए
सखी मन खनक-खनक जाए।

काली घटाएं घड़क रही है
चहुं दिशाएं बरस रही है,
वन कानन में द्रुम पत्रों पर
सुर ताल दे ठुमुक रही है
बासंती सी ऋतु मनभावन ,
मन  भी  देखो हर्षाए
सखी मन खनक खनक जाए

              कुसुम कोठारी।

Tuesday 17 December 2019

संवरी हूं मैं

संवरी हूं मैं

कतरा-कतरा पिघली हूं मैं
फिर सांचे-सांचे ढली हूं मैं,
हां जर्रा-जर्रा बिखरी हूं मैं
फिर बन तस्वीर संवरी हूं मैं , 
अपनो को देने खुशी
अपनो संग चली हूं मैं ,
अपना अस्तित्व भूल
सब का अस्तित्व बनी हूं मैं,
कुछ हाथ आंधी से बचा रहे थे
तभी रौशन हो शमा सी जली हूं मैंं,
छूने को  उंचाईयां
रुख संग हवाओं के बही हूं मैं।

           कुसुम कोठारी।

Thursday 12 December 2019

बेबस

सर्द हवा की थाप
बंद होते दरवाजे खिडकियां,
नर्म गद्दों में  रजाई से लिपटा तन
और बार बार होठों से फिसलते शब्द
आज कितनी ठंड है!
कभी ख्याल आया उनका
जिन के पास रजाई तो दूर
 हड्डियों पर मांस भी नही ,
सर पर छत नही ,
औऱ आशा कितनी बड़ी
 कल धूप निकलेगी
ठंड कम हो जायेगी ,
अपनी भूख,बेबसी,
औऱ कल तक अस्तित्व
बचा लेने की लड़ाई ,
कुछ रद्दी चुन के अलाव बनायें
दो कार्य एक साथ ,
आज थोड़ा आटा हो तो
रोटी और ठंड दोनों सेक लें ।

          कुसुम कोठरी ।

अलाव

अलाव
अच्छा लगता है ना जाडे में अलाव सेकना,
खुले आसमान के नीचे बैठ सर्दियों से लडना,
हां कुछ देर गर्माहट का एहसास
तन मन को अच्छा ही लगता है,
पर उस अलाव का क्या
जो धधकता रहता हर मौसम ,
अंदर कहीं गहरे झुलसते रहते जज्बात,
बेबसी,बेकसी और भुखे पेट की भट्टी का अलाव ,
गर्मीयों में सूरज सा जलाता अलाव
धधक-धधक खदबदाता ,
बरसात में सिलन लिये धुंवा-धुंवा अलाव
बाहर बरसता सावन, अंदर सुलगता ,
पतझर में आशाओं के झरते पत्तों का अलाव
उडा ले जाता कहीं उजडती अमराइयों में ,
सर्दी में सुकून भरा गहरे तक छलता अलाव।

                 कुसुम कोठारी।

Wednesday 11 December 2019

पथिक

पथिक

रे मन तू पथिक
किस गांव का ।
भटकत सुबह शाम
ना ठौर ना ठांव का,
किस सुधा को ढ़ूंढ़ता
जुग कितने बीते,
डोलत इस उस पथ
रहे तृष्णा घट रीते।

रे मन तू पथिक
किस गांव का।

इस पिंजरे को
समझ के अपना,
देख रहा तू
भ्रम का सपना ,
लम्बी सफर का
तार जब जुड़ जायेगा,
देखते -देखते
पाखी तो उड़ जायेगा।

रे मन तू पथिक
किस गांव का।

होश नहीं तुझको
तू कौन दिशा से आया,
शीतल छांव में भूला
समय गमन का आया,
बांध गठरिया चल तू
ये देश वीराना जान ले,
आसक्ति को छोड़ कर
निज स्वरूप पहचान ले ।

रे मन तू पथिक
किस गांव का।

कुसुम कोठारी।

Sunday 8 December 2019

कुंडलियां छंद। नेता

कुंडलिया छंद

नेता।

नेता कुर्सी पूजते, जैसे चारों धाम
जनता ऐसे पिस रही,भली करें अब राम
भली करे अब राम,  कि कैसा कलयुग आया
नैतिकता मझधार ,  सभी को स्वार्थ सुहाया
न्योछावर कर प्राण , परमार्थ जीवन देता ।
दिखते नही अब तो  , कहीं भी ऐसे नेता।

कुसुम कोठारी।

Thursday 5 December 2019

मेथी का विवाह

मेथी का विवाह।

एक निमंत्रण देख कर मन हुआ आवाक
करेले ने ब्याह रचाया कोमल मेथी के साथ ,
सजे-धजे बाराती लौकी ,भिंडी,आलू-प्याज,
बेंगन जी इठला रहे थे, हुआ टमाटर शर्म से लाल,
टेढ़ी-मेढ़ी अदरक ने पहना नया सूट
गाजर मूली ढूंढ़ रहे थे अपने अपने बूट,
नारियल ने जोटी से गूंथी चोटी
कद्दू कहे हाय छुपाऊं कैसे तोंद मोटी,
पालक की हरी अगंडाई, तुरई बोली पहनु साड़ी
टिंडा जी खड़े उदास पांव दर्द है मंगा लो गाड़ी,
खीरा ,ककड़ी, सीम,ग्वार खड़े थे समधी के द्वार
परवल बोली मुझे बुखार पहले देदो गोली चार,
गोभी,मटर धनिया,अलसाया पर ना चला कोई बहाना
लहसुन पुछे कहां जाना भूल गई मैं तो ठिकाना,

         मालिन बोली उठा कर डंडी           
           पहुंचों सब कोई "सब्जीमंडी "।

Monday 2 December 2019

जीवन पल-पल एक परीक्षा

जीवन पल-पल एक परीक्षा
महाविलय की अग्रिम प्रतिक्षा।

अतृप्त सा मन कस्तुरी मृग सा,
भटकता खोजता अलब्ध सा,
तिमिराछन्न परिवेश में मूढ मना सा,
स्वर्णिम विहान की किरण ढूंढता,
छोड घटित अघटित अपेक्षा ।
जीवन पल-पल एक परीक्षा...

महासागर के महा द्वंद्व सा ,
जलता रहता बङवानल सा,
महत्वाकांक्षा की धुंध में घिरता
खुद से ही कभी न्याय न करता
सृजन में भी संहार आकांक्षा ।
जीवन पल-पल एक परीक्षा...

कभी होली भरोसे की जलाता
अगन अबूझ समझ नही पाता
अव्यक्त लौ सा जलता जाता
कभी मन प्रस्फुटित दिवाली मनाता,
खुश हो करता सत्य की उपेक्षा ।
जीवन पल-पल एक परीक्षा....

रातें गहरी, जितना भ्रमित मना
कमतर उजला दिन भी उतना ,
खण्डित आशा अश्रु बन बहती
मानवता विक्षत चित्कार करती,
अपूर्ण अविचल रहती,आकांक्षा
जीवन पल पल एक परीक्षा  ....

                     कुसुम कोठारी।

Friday 29 November 2019

थोड़ा शहर गांव में

जब पेड़ों पर कोयल काली
कुहुक-कुहुक कर गाती थी,
डाली-डाली डोल पपीहा
पी कहां  की राग सुनाता था,
घनघोर  घटा घिर आती थी
और मोर नाचने आते थे ,
जब गीता श्यामा की शादी में
सारा गांव नाचता गाता था ,
कहीं नन्हे के जन्मोत्सव पर
ढोल बधाई  बजती थी  ,
खुशियां  सांझे की होती थी
गम में हर आंख भी रोती थी,
कहां गया वो सादा जीवन
कहां गये वो सरल स्वभाव ,
सब "शहरों" की और भागते
 नींद  ओर चैन गंवाते ,
या वापस आते समय
थोडा शहर साथ ले आते ,
सब भूली बिसरी बातें हैं
और यादों के उलझे धागे हैं।

           कुसुम कोठारी ।

Wednesday 27 November 2019

एक और महाभारत

एक और महाभारत

गर्दिश ए दौर किसका था
कुछ समझ आया कुछ नहीं आया,
वक्त थमा था उसी जगह
हम ही गुज़रते रहे दरमियान,
गजब खेल था समझ से बाहर
कौन किस को बना रहा था,
कौन किसको बिगाड़ रहा था,
चारा तो बेचारा आम जन था,
जनता हर पल ठगी सी खड़ी थी
महाभारत में जैसे द्युत-सभा बैठी थी,
भीष्म ,धृतराष्ट्र,द्रोण ,कौरव- पांडव
न जाने कौन किस किरदार में था,
हां दाव पर द्रोपदी ही थी पहले की तरह,
जो प्रंजातंत्र के वेश में लाचार सी खड़ी थी,
जुआरी जीत-हार तक नये पासे फैंकते रहे,
आदर्शो का भरी सभा चीर-हरण होता रहा,
केशव नही आये ,हां केशव अब नही आयेंगे ,
अब महाभारत में "श्री गीता" अवतरित नहीं होगी,
बस महाभारत होगा छल प्रपंचों का ।

              कुसुम कोठारी।

Friday 22 November 2019

बिटिया ही कीजे

अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजे ।
प्रभु मुझ में ज्वाला भर दीजे,
बस  ऐसी  शक्ति  प्रभु  दीजे,
अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजे।
आंख उठे जो लिए बेशर्मी
उन आंखों से ज्योति छीन लूं ,
बन अम्बे ,दानव मन का
शोणित नाश करू कंसों का,
अबला, निर्बल, निःसहाय नारी का ,
संबल बनूं दम हो जब तक
चीर हीन का बनूं मैं आंचल ,
आतताईंयों की संहारक ,
काली ,दुर्गा ,शक्ति रूपेण बन,
हनन करू सारे जग के खल जन,
विनती ऐसी प्रभु सुन लीजे
अगले जनम मोहे बिटिया  ही कीजे।।

                कुसुम कोठारी ।

Thursday 21 November 2019

दर्पण दर्शन

दर्पण दर्शन

आकांक्षाओं के शोणित
बीजों का नाश
संतोष रूपी भवानी के
हाथों सम्भव है
वही तृप्त जीवन का सार है।

"आकांक्षाओं का अंत "।

ध्यान में लीन हो
मन में एकाग्रता हो
मौन का सुस्वादन
पियूष बूंद सम
अजर अविनाशी।

शून्य सा, "मौन"।

मन की गति है
क्या सुख क्या दुख
आत्मा में लीन हो
भव बंधनो की
गति पर पूर्ण विराम ही।

परम सुख,.. "दुख का अंत" ।

पुनः पुनः संसार
में बांधता
अनंतानंत भ्रमण
में फसाता
भौतिक संसाधन।
 यही है " बंधन"।

स्वयं के मन सा
दर्पण
भली बुरी सब
दर्शाता
हां खुद को छलता
मानव।
" दर्पण दर्शन "।

कुसुम कोठारी।

Saturday 16 November 2019

कोरे मन के कागज

कोरे मन के कागज पर
चलो एक गीत लिखते हैं,
डूबाकर तूलिका भावों में
चलो एक गीत लिखते हैं ।

मन की शुष्क धरा पर
स्नेह नीर सिंचन कर दें,
भुला  करके सभी शिकवे
चलो एक गीत लिखते हैं।

शब्द तुम देना चुन-चुन कर
मैं सुंदर अर्थों से सजा दूंगी,
सरगम की किसी धुन पर
चलो एक गीत लिखते हैं।

हवाओं में कोई सरगम
मदहोशी हो फिजाओं में,
बैठ कर किसी तट पर
चलो एक गीत लिखते हैं।

अगर मैं भूलूं तो तुम गाना
संग मेरे तुम भी गुनगुनाना,
 गुजरते संग-संग राहों पर
चलो एक गीत लिखते हैं।

       कुसुम कोठारी।

Wednesday 13 November 2019

नौनिहाल

नौनिहाल कहाँ खो रहे हैं
कहाँ गया वो भोला बचपन
कभी किलकारियां गूंजा करती थी
और अब चुपचाप सा बचपन
पहले मासूम हुवा करता था
आज प्रतिस्पर्धा में डूबा बचपन
कहीं बङों की भीड़ में खोता
बड़ी-बड़ी सीख में उलझा बचपन
बिना खेले ही बीत रहा
आज के बच्चों का बचपन।

       कुसुम कोठारी ।

Tuesday 12 November 2019

ढोल की पोल

अब सिर्फ देखिये, बस चुप हो देखिए
पांव की ठोकर में,ज़मी है गोल कितनी देखिए।

क्या सच क्या झूठ है, क्या हक क्या लूट है,
मौन हो सब देखिए, राज यूं ना खोलिए,
क्या जा रहा आपका, बेगानी पीर क्यों झेलिए,
कोई पूछ ले अगर, तो भी कुछ ना बोलिए ।
अब सिर्फ देखिए, बस चुप हो देखिए ।

गैरत अपनी को, दर किनार कर बैठिए,
कुछ दिख जाय तो, मुख अपना मोडिए ,
कुछ खास फर्क पडना नही यहां किसीको,
कुछ पल में सामान्य होता यहां सभी को ।
अब सिर्फ देखिए, बस चुप हो देखिए।

ढोल में है पोल कितनी बजा-बजा के देखिए,
मार कर ठोकर या फिर ढोल को ही तोड़िए,
लम्बी तान सोइये, कान पर जूं ना तोलिए,
खुद को ठोकर लगे तो,आंख मल कर बोलिए।
अब सिर्फ क्यों देखिये, लठ्ठ बजा के बोलिए।

                 कुसुम कोठारी

Friday 8 November 2019

नशेमन इख़लास

नशेमन इख़लास

ना मंजिल ना आशियाना पाया
वो  यायावर सा  भटक गया

तिनका-तिनका जोडा कितना
नशेमन इख़लास का उजड़ गया

वह सुबह का भटका कारवाँ से
अब तलक सभी से बिछड़ गया

सीया एहतियात जो कोर-कोर
क्यूं कच्चे धागे सा उधड़ गया।।

         कुसुम कोठारी।

Wednesday 6 November 2019

हां यूं ही कविता बनती है।

हां यूं ही कविता बनती है।

.   गुलाब की पंखुड़ियों सा
        कोई कोमल भाव
     मेधा पुर में प्रवेश कर
अभिव्यक्ति रूपी मार्तंड की
     पहली मुखरित किरण
              के स्पर्श से
            मन सरोवर में
      सरोज सा खिल जाता है
      जब कोरे पन्ने पर अंकित
        होने  को आतुर शब्द
   अपने आभूषणों के साथ
      आ विराजित होते हैं
  तब रचना सुंदर रेशमी बाना 
         पहन इठलाती है।
    हां यूं ही कविता बनती है।

             कुसुम कोठारी।

Sunday 3 November 2019

आस मन पलती रही

"पलकों में सपने सँजोये,
आस मन पलती रही।'
चांदनी के वर्तुलों में
सोम सुधा झरती रही।

सुख सपन सजने लगे,
युगल दृग की कोर पर।
इंद्रनील कान्ति शोभित
मन व्योम के छोर पर ।
पिघल-पिघल निलिमा से,
मंदाकिनी बहती रही ।
पलकों में सपने संजोए
आस मन पलती रही।

गुनगुनाती रही दिशाएं,
लिए राग मौसम खड़ा।
बाहों में आकाश भरने
पाखियों सा  मन उड़ा।
देख वल्लरियों पर यौवन
कुमुद कली खिलती रही
पलकों में सपने संजोए
आस मन पलती रही।

द्रुम बजाते रागिनी सी,
मिल समीर की थाप से।
झिलमिलता नीर सरि का,
दीप मणी की चाप से ।
उतर आई अप्सराएं,
शृंगार धरा करती रही ।
पलकों में सपने संजोए
आस मन पलती रही।

    कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday 1 November 2019

झील का पानी

ये शांत झील ठहरा पानी
गौर से सुनो कह रहा कहानी।

बर्फ जब चारों तरफ सोई
धूप के गले मिल फूट-फूट रोई
मेरा जन्म हुवा मिटने की पीडा से
धार बन बह चला रोते-रोते
पत्थरों पर सर पटकते,रुहानी
मेरी कहानी......

मैं ऊंचे पथरीले "सोपान" से उतरा
कितनी चोट सही पीडा झेली
रुका नही चलता रहा निरन्तर
मैं रुका  गहराई ने मुझे थामा
सुननी थी उसे मेरी जुबानी,
मेरी कहानी......

कभी कंकर लगा हृदय स्थल पर
मैं विस्मित! कांप गया अंदर तक
कभी आवागमन करती कश्तियां
पंछी  कलरव करते मुझ में
और हवा आडोलित करती, सुहानी
मेरी कहानी.......

किनारों पर मेरे लगते जलसे
हंसते खेलते आनंदित बडे,बच्चे
मैं खुश होता उन्हें देख-देख पर,
पीड़ा से भर जाता जब कर जाते 
 प्रदुषित मुझे, वही पुरानी
मेरी कहानी.......

ये शांत झील ठहरा पानी
गौर से सुनो कह रहा कहानी।
          कुसुम कोठारी।

Wednesday 30 October 2019

यूं ही झुकते नहीं आसमान

यूंही झुकते नही आसमां
कदमों में
 किसी के,
खुद को दबाना होता है
बार बार मिट्टी में,
बीज बन जो मिटते हैं
औरों के लिए,
वही नव अंकुरित होते है,
लहराते है फसलों से,
झुकता है अंबर भी
उन के पाँवों मे खुशी से।

............कुसुम कोठारी

Monday 28 October 2019

मधुरागी

मधुरागी

सुंदर सौरभ यूं
बिखरा मलय गिरी से,
उदित होने लगा
बाल पंतग इठलाके,
चल पड़ कर्तव्य पथ
का राही अनुरागी
प्रकृति सज उठी है
ले नये शृंगार मधुरागी
पुष्प सुरभित
दिशाएँ रंग भरी
क्षितिज व्याकुल
धरा अधीर
किरणों की रेशमी डोर
थामे पादप हंसे
पंछी विहंसे
विहंगम कमल दल
शोभित सर हृदी
भोर सुहानी आई
मन भाई।

    कुसुम कोठारी ।

Friday 25 October 2019

शुभ भावों से दिपित दीवाली

शुभ भावों से दिपित दीवाली

घर का हर कोना चमकाया
कुड़ा करकट भी  निसराया
अब बारी है सोचों की
उन को भी दुरस्त कुछ कर लें
बेकार की बातें  बिसरायें
सुंदर भावों से मन चमकायें
स्नेह से दिल की दिवारें रंग लें
सकारात्मकता की सजावट करलें
प्यार विश्वास का दीप जला लें ।

             कुसुम कोठारी ।

Tuesday 22 October 2019

देह दीप में सन्मति का तेल

जलते दीप को देख,
दूर एक दीपक बोला
क्यों जलते औरों की खातिर
खुद तल में तेरे है अंधेरा ,
दीपक बोला गर नीचे ही देख लेता
तो वहाँ नही अंधेरा होता ,
बस मैं हूं केवल कलेवर
मैं कहां कब जला,
जले तो मिल तेल,बाती
और भ्रमित संसार ये बोले
देखो दीप जला,
सच-मुच जग को
गर करना रौशन ,
तो ऐ ! मानव सुन
देह दीप में सन्मति का तेल
और ज्ञान की बाती से
बस ज्योति जला
बस एक ज्योति जला ।

             कुसुम कोठारी ।

Friday 18 October 2019

दीवाली

दीपमालिका दीप ज्योति संग
भर-भर खुशियां लायी
नवल ज्योति की पावन आभा 
प्रकाश पुंज ले आयी
प्रज्वलित करने मन प्रकाश को
दीपशिखा लहरायी
पुलकित गात,मुदित उर बीच
ज्यों स्नेह धारा बह आयी
अमावस के अंधियारे पर
दीप  चांदनी  छायी
मन तारों ने झंकृत हो
गीत  बधाई  गायी
चहूं ओर उल्लास प्रदिप्त
घर-घर खुशियां छायी
मन मयूर कर नृतन कहे
लो दीपमालिका आयी ।

    कुसुम कोठारी ।

Thursday 17 October 2019

तुम्ही छविकार चित्रकारा



          तुम्ही छविकार चित्रकारा 

तप्त से इस जग में हो बस तुम ही अनुधारा
तुम्ही रंगरेज तुम्ही छविकार, मेरे चित्रकारा,
रंग सात नही सौ रंगो से रंग दिया तूने मुझको
रंगाई ना दे पाई तेरे पावन चित्रों की तुझको।

हे सुरभित बिन्दु मेरे ललाट के अविरल
तेरे संग ही जीवन मेरा प्रतिपल चला-चल,
मन मंदिर में प्रज्जवलित दीप से उजियारे हो
इस बहती धारा में साहिल से बांह पसारे हो।

सांझ ढले लौट के आते मन खग के नीड़ तुम्ही
विश्रांति के पल- छिन में हो शांत सुधाकर तुम्ही,
मेरी जीवन नैया के सुदृढ़ नाविक हो तुम्ही 
सदाबहार खिला रहे उस फूल की शाख तुम्ही।।

                     कुसुम कोठारी।

Sunday 13 October 2019

शरद पूर्णिमा का चांद

धवल ज्योत्सना पूर्णिमा की 
अंबर रजत चुनर ओढ, मुखरित
डाल-डाल चढ़ चंद्रिका  डोलत
पात - पात पर  रमत  चंदनिया
तारक दल  सुशोभित  दमकत
नील कमल पर अलि डोलत यूं
ज्यों श्याम मुखबिंद काले कुंतल
गुंचा महका ,  मलय  सुवासित
चहुँ ओर उजली किरण सुशोभित
नदिया  जल चांदी  सम चमकत
कल छल कल मधुर राग सुनावत
हिम गिरी  रजत  सम  दमकत
शरद  स्वागतोत्सुक मंयक की
आभा अपरिमित सुंदर शृंगारित
 शोभा न्यारी अति भारी सुखकारी।
             कुसुम  कोठारी।

Saturday 12 October 2019

प्रेम के हरे रहने तक

पलाश का मौसम अब आने को है,
जब खिलने लगे पलाश
संजो लेना आंखों में
सजा रखना हृदय तल में
फिर सूरज कभी ना डूबने देना
चाहतों के पलाश का
बस यूं ही खिले-खिले रखना,
हरी रहेगी अरमानों की बगिया
प्रेम के हरे रहने तक।

           कुसुम कोठारी ।

प्रेम विरहा सब ही झूठ

कैसो री अब वसंत सखी ।

जब से श्याम भये परदेशी
नैन बसत सदा मयूर पंखी
कहां बस्यो वो नंद को प्यारो
उड़ जाये मन बन पाखी
कैसो री अब वसंत सखी।

सुमन भये सौरभ विहीन
रंग ना भावे सुर्ख चटकीले
खंजन नयन बदरी से सीले
चाँद लुटाये चांदनी रुखी
कैसो री अब वसंत सखी।

धीमी बयार जीया जलाए
फीकी चंद्र की सभी कलाएं
चातकी जैसे राह निहारूं
कनक वदन भयो अब लाखी
कैसो री अब वसंत सखी।

झूठो है जग को जंजाल
जल बिंदु सो पावे काल
"प्रेम" विरहा सब ही झूठ
आत्मानंद पा अंतर लखि
ऐसो हो अब वसंत सखी।

       कुसुम कोठारी ।

लाखी - लाख जैसा मटमैला
लखि-देखना ।

Wednesday 9 October 2019

पत्थरों के शहर

पत्थरों के शहर

ये क्या कि पत्थरों के शहर में
शीशे का आशियाना ढूंढते हो!

आदमियत  का पता  तक  नहीं
ग़ज़ब करते हो इन्सान ढूंढ़ते हो !

यहाँ पता नही किसी नियत का
ये क्या कि आप ईमान ढूंढते हो !

आईनों में भी दग़ा  भर गया यहां
अब क्या सही पहचान  ढूंढते हो !

घरौदें  रेत के बिखरने ही तो  थे,
तूफ़़ानों पर क्यूं इल्ज़ाम ढूंढते हो !

जहां  बालपन  भी  बुड्ढा  हो गया
वहां मासूमियत की पनाह ढूंढ़ते हो!

भगवान अब महलों में सज के रह गये
क्यों गलियों में उन्हें सरेआम ढूंढ़ते हो।

                कुसुम कोठारी।

Monday 7 October 2019

पुतला नहीं प्रवृति का दहन

 पुतला नही प्रवृति का दहन

मन का रावण
आज भी खड़ा है
सर तान कर
अंगद के पाँव जैसा,
सदियां बीत गई
रावण जलाते
पुतला भस्म होता रहा हर बार
रावण वहीं खड़ा रहा
अपने दंभ के साथ
सीना ताने
क्या जलाना है ?
पुतला या प्रवृति
बस लकीर पीट रहें हैं
बैठे बैठे हम
काश साल में
एकबार ही सही ,
मन की आसुरी
सोच बदलते
राम न बनते ,
रावण से नाता तोड़ते
तो  सचमुच दशहरा
सार्थक होता ।

                कुसुम कोठारी ।

Saturday 5 October 2019

श्वेत सारंग दल

मेघों का काम है वर्षा के रूप में जल का वरदान बन बरसाना , प्रकृति निश्चित करती है कब, कितना, कंहा।
फिर ऐसा समय आता है पानी से मुक्त बादल नीले आसमान पर यूं ड़ोलते हैं ,निज कर्त्तव्य भार से उन्मुक्त हो वलक्ष रेशमी रूई जैसे....


व्योम पर बिखरे दल श्वेत सारंग
हो उन्मुक्त निज कर्त्तव्य भार से,
चांदनी संग क्रीड़ा करते दौड़ते
निर्बाध गति पवन संग हिलोर से।

धवल ,निर्मल , निर्दोष  मेघमाला
चांद निहारता बैठ निज गवाक्ष से,
अहो मणिकांत माधुरी सी बह रही।
लो सोम-सुधा पुलक उठी स्पर्श से

मंदाकिनी रंग मिल बने वर्ण अमल
घन ओढ़नी पर तारक दल हिर कण से,
आज चंद्रिका दरिद्रा मांगे रेशम वलक्ष
नील नभ झांकता कोरी घूंघट ओट से ।

ऋतु का संदेशा लेकर चला हरकारा
शुक्ल अश्व सवार हो, मरुत वेग से,
मुकुर सा ,"नभ - गंगा" सुधा सलिल
पयोद निहारता निज आनन दर्प से ।

          कुसुम कोठारी।

Thursday 3 October 2019

जीवन यवनिका

एक यवनिका गिरने को है,
जो सोने सा दिख रहा वो
अब माटी का ढेर होने को है,
लम्बे सफर पर चल पङा
नींद गहरी सोने को है।
एक यवनिका .....।.
जो समझा था सरुप अपना
वो सरुप अब खोने को है,
अब जल्दी से उस घर जाना
जहाँ देह नही सिर्फ़ रूह है।
एक यवनिका ....
डाल डाल जो फूदक रहा
वो पंक्षी कितना भोला है, 
घात लगाये बैठा बहेलिया
किसी पल बिंध जाना है ।
एक यवनिका .....
जो था खोया रंगरलियों में
राग मोह में फसा हुवा ,
मेरा-मेरा कर जो मोहपास में बंधा हुवा
आज अपनो के हाथों भस्म अग्नि में होने को है ।
एक यवनिका  ......

           कुसुम कोठारी ।

Tuesday 1 October 2019

गांधी मेरी नज़र में

गांधी जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं

राष्ट्रपिता को संबोधन , क्षोभ मेरे मन का :-

बापू कहां बैठे हो आंखें छलकाये
क्या ऐसे भारत का सपना था?
बेबस बेचारा पस्त थका - थका
इंसानियत सिसक रही
प्राणी मात्र निराश दुखी
गरीब कमजोर निःसहाय
हर तरफ मूक हाहाकार
कहारती मानवता,
झुठ फरेब
रोता हुवा बचपन,
डरा डरा भविष्य
क्या इसी आजादी का
चित्र बनाया था
अब तो छलकाई
आंखों से रो दो
जैसे देश रो रहा है।

कुसुम कोठारी।

आज दो अक्टूबर, मेरे विचार में गांधी।

मैं किसी को संबोधित नही करती बस अपने विचार रख रही हूं, प्रथम! इतिहास हमेशा समय समय पर लिखने वाले की मनोवृत्ति के हिसाब से बदलता रहा है, कभी इतिहास को प्रमाणिक माना जाता था आज इतिहास की प्रमाणिकता पर सबसे बड़ा प्रश्न चिंह है।
रही महापुरुषों पर आक्षेप लगाने की तो हम (हर कुछ भी लिखने वाला बिना सोचे) आज यही कर रहे हैं, चार पंक्तियाँ में किसी को भी गाली निकाल कर पढने वालों को भ्रमित और दिशा हीन कर अपने को तीस मार खाँ समझते हैं, ज्यादा कुछ आनी जानी नही, बस कुछ भी परोसते हैं, और अपने को क्रांतिकारी विचार धारा वाला दिखाते हैं, देश के लिये कोई कुछ नही कर रहा, बस बैठे बैठे समय बिताने का शगल।

हम युग पुरुष महात्मा गाँधी को देश का दलाल कहते हैं, जिस व्यक्ति ने सारा जीवन देश हित अर्पण किया ।

सोच के बताओ देश को बेच कर क्या उन्होंने महल दो महले बनवा लिये, या अपनी पुश्तों के लिये संपत्ति का अंबार छोड गये, एक धोती में रहने वाले ने अपने आह्वान से देश को इस कौने से उस कौने तक जोड दिया, देश एक जुट हुवा था तो एक इसी व्यक्तित्व के कारण उस नेता ने देश प्रेम की ऐसी लहर चलाई थी कि हर गली मुहल्ले मे देश हित काम करने वाले नेता पैदा हुवे और अंग्रेजों से विरोध की एक सशक्त लरह बनी, हर तरफ अंदर से विरोध सहना अंग्रेजों के वश में नही रहा, और जब उनके लिऐ भारत में रूकना असंभव हो गया।

कहते हैं, वो चाहते तो भगतसिंह की फांसी रूकवा सकते थे ऐसा कहने वालो की बुद्धि पर मुझे हंसी आती है, जैसे कानून उनकी बपोती था? वो भी अंग्रेजी सत्ता में, और वो अपनी धाक से रूकवा देते, ऐसा संभव है तो हम आप करोड़ों देशवासी मिल कर निर्भया कांण्ड में एक जघन्य आरोपी को सजा तक नही दिला सके कानून हमारा देश हमारा और हम लाचार  हैं याने हम जो न कर पायें वो लाचारी और उन से जो न हो पाया वो अपराध अगर दो टुकड़े की शर्त पर भी आजादी मिली तो समझो सही छुटे वर्ना न जाने और कब तक अंग्रेजों के चुगल में रहते ।
और बाद मे देश को टुकड़ो में तोड़ ते रहते पहले भी राजतंत्र में देश टुकड़ो में बंटा सारे समय युद्ध में उलझा रहता था ।

 कुछ करने की ललक है तो आज भी देश की अस्मिता को बचाने का जिम्मा उठाओ कुछ तो कर दिखाओ सिर्फ हुवे को कब तक कोसोगे ।
जितना मिला वो तो अपना है उसे तो संवारो।

मैं अहिंसा की समर्थक हूं, पर मैं भी हर अन्याय के विरुद्ध पुरी तरह क्रांतिकारी विचार धारा रखती हूं, मैं सभी क्रांतिकारियों को पूर्ण आदर और सम्मान के साथ आजादी प्राप्ति का महत्वपूर्ण योगदाता मानती हूं।

पर गांधी को समझने के लिये एक बार गांधी की दृष्टि से गांधी को देखिये जिस महा मानव ने जादू से नही अपनी मेहनत, त्याग, देश प्रेम, अहिंसा और दृढ़ मनोबल से सारे भारत को एक सूत्र मे बांधा था भावनाओं से, ना कि डंडे से, और जो  ना उससे पहले कभी हुवा ना बाद में।
मै कहीं भी किसी पार्टी के समर्थन और विरोध में नही बल्कि एक चिंतन शील भारतीय के नाते ये सब लिख रही हूं।

जय हिंद।।

वेदना के स्वर

शाख से झर रहा हूं
मैं पीला पत्ता ,
तेरे मन से उतर गया हूं
मैं पीला पत्ता
ना तुम्हें ना बहारों को
कुछ भी अंतर पड़ेगा
सूख कर मुरझाया सा
मैं पीला पत्ता ,
छोड ही दोगे ना तुम मुझे
आज कल में
लो मैं ही छोड तुम्हें चला
मैं पीला पत्ता
संग हवाओं  के बह चला
मैं पीला पत्ता
अब रखा ही क्या है मेरे लिये
न आगे की नियति का पता
ना किसी गंतव्य का
मैं पीला पत्ता।।

कुसुम कोठारी ।





Sunday 29 September 2019

सर्वभाव क्षणिकाएं

तीन क्षणिकाएं

मन
मन क्या है? एक द्वंद का भंवर है,
मंथन अनंत बार एक से विचार है,
भंवर उसी पानी को अथक घुमाता है,
मन उन्हीं विचारों को अनवरत मथता है।

अंहकार
अंहकार क्या है? एक मादक नशा है,
बार बार सेवन को उकसाता रहता है,
 मादकता बार बार सर चढ बोलती है,
अंहकार सर पर ताल ठोकता रहता है।

क्रोध
क्रोध क्या है? एक सुलगती अगन है,
आग विनाश का प्रति रुप जब धरती है,
जलाती आसपास और स्व का अस्तित्व है,
क्रोध अपने से जुड़े सभी का दहन करता है।

                       कुसुम कोठारी।

Saturday 28 September 2019

स्वागत मां दुर्गा

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि । एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरि विनाशनम्।

नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं।

.     बरखा अब विदाई के
  अंतिम सोपान पर आ खडी है,
         विदा होती दुल्हन के
       सिसकियों के हिलोरों सी
      दबी-दबी सुगबुगाहट लिए।

            शरद ने अभी अपनी
            बंद अटरिया  के द्वार
         खोलने शुरू भी नही किए
              मौसम के मिजाज
     समझ के बाहर उलझे-उलझे।

        मां दुर्गा भी उत्सव का
   उपहार लिये आ गईं धरा पर
         चहुँ ओर नव निकेतन
          नव धाम सुसज्जित
  आवो करें स्वागत मुदित मन से।

                   कुसुम कोठारी।

Thursday 26 September 2019

सुर और साज

सुर और साज

एक सुर निकला  उठ चला
जाके विधाता से तार  मिला।

संगीत में ताकत है इतनी
साज से उठा दिल में मचला
मस्तिष्क का हर तार झनका
गुनगुन स्वर मध्धम सा चला
दुखियों के दुख भी कम करता
सुख में जीवन सुरंग रंग भरता।
एक सुर..........

मधुर-मधुर वीणा बजती
ज्यों आत्मा तक रस भरती
सारंगी की पंचम  लहरी
आके हिया के पास ठहरी
सितार के सातों तार बजे
ज्यों स्वर लहरी अविराम चले।
एक सुर..........

ढोलक धुनक-धुनक डोली
चल कदम ताल मिलाले बोली
बांसुरी की मोहक धुन बाजी
ज्यों माधव ने  मुरली साजी
जल तरंग की मोहक तरंग
झरनो की कल कल अनंग।
एक सुर..........

तबले की है थाप सुहानी
देखो नाचे गुडिया रानी
मृदंग बोले मीठे स्वर में
मीश्री सी घोले तन उर में
एक तारा जब प्यार से बोले
भेद जीया के सारे खोले।
एक सुर......…..

पेटी बाजा बजे निराला
सप्त सुरों का सुर प्याला
और नगाड़ा करता शोर
ताक धिना-धिन नाचे मन-मोर
और बहुत से साज है खनके
सरगम का श्रृंगार बनके।
एक सुर.... .....
                 कुसुम कोठारी ।

Sunday 22 September 2019

बेटियां पथरीले रास्तों की दुर्वा

बेटियाँ, पथरीले रास्तों की दुर्वा

रतनार क्षितिज का एक मनभावन छोर
उतर आया हो जैसे धीरे-धीरे क्षिति के कोर ।

जब चपल सी बेटियाँ उड़ती घर आँगन
अपने रंगीन परों से तितलियों समान ।

नाज़ुक,प्यारी मृग छौने सी शरारत में
गुलकंद सा मिठास घोलती बातों-बातों में ।

जब हवा होती पक्ष में बादल सा लहराती
भाँपती दुनिया के तेवर चुप हो बैठ जाती ।

बाबा की प्यारी माँ के हृदय की आस
भाई की सोन चिरैया आँगन का उजास ।

इंद्रधनुष सा लुभाती मन आकाश पर सजती
घर छोड़ जाती है तो मन ही मन लरजती ।

क्या है बेटियाँ लू के थपेड़ों में ठंडी पूर्वा
जीवन के पथरीले रास्तों में ऊग आई दुर्वा ।

           कुसुम कोठारी।

Friday 20 September 2019

रूह से सजदा

रूह से सजदा

सोने दो चैन से मुझे न ख़्वाबों में ख़लल डालो,
न जगाओ मुझे यूं न वादों में  ख़लल डालो।

शाख से टूट पत्ते दूर चले उड के अंजान दिशा
ए हवाओं ना रुक के यूं मौज़ों में ख़लल डालो।

रात भर रोई नरगिस सिसक कर बेनूरी पर अपने
निकल के ऐ आफ़ताब ना अश्कों में ख़लल डालो।

डूबती कश्तियां कैसे, साहिल पे आ ठहरी धीरे से
भूल भी जाओ ये सब ना तूफ़ानों में ख़लल डालो।

रुह से करता रहा सजदा पशेमान सा था दिल
रहमोकरम कैसा,अब न इबादतों में ख़लल डालो।

                  कुसुम कोठारी

Thursday 19 September 2019

नश्वर जग

नश्वर जग
 
झरते पात जाते-जाते
बोले एक बात,
हे तरुवर ना होगा
मिलना किसी भांत ,
हम बिछुड़ तुम से अब,
कहीं दूर पड़ें या पास,
पातों का दुख देख कर
तरु भी हुआ उदास ,
बोला फिर भी वह एक
आशा वाली बात ,
हे पात सुनो ध्यान से
मेरी एक शाश्र्वत बात ,
जाने और आने का
कभी ना कर संताप ,
इस जग की रीत यही है
सत्य और संघात ,
नव पल्लव विहंस कर
कहते है एक बात,
कोई आवत जग में
और कोई है जात ।

              कुसुम कोठारी।

Tuesday 17 September 2019

धुंआ-धुंआ ज़िंदगी

कहीं उजली,  कहीं स्याह अधेंरों की दुनिया ,
कहीं आंचल छोटा, कहीं मुफलिसी में दुनिया।

कहीं  दामन में चांद और  सितारे भरे हैं ,
कहीं ज़िन्दगी बदरंग धुँआ-धुआँ ढ़ल रही है ।

कहीं हैं लगे हर ओर रौनक़ों के रंगीन मेले
कहीं  मय्यसर नही  दिन  को भी  उजाले ।

कहीं ज़िन्दगी महकती खिलखिलाती है
कहीं टूटे ख्वाबों की चुभती किरचियां है ।

कहीं कोई चैन और सुकून से सो रहा  है,
कहीं कोई नींद से बिछुड़ कर रो रहा है।

कहीं खनकते सिक्कों की  खन-खन है,
कहीं कोई अपनी ही मैयत  को ढो रहा है ।

              कुसुम कोठारी।

Saturday 14 September 2019

जगत और जीवात्मा

जगत और जीवात्मा

ओ गगन के चंद्रमा मैं शुभ्र ज्योत्सना तेरी हूं,
तूं आकाश भाल विराजित मैं धरा तक फैली हूं।

ओ अक्षूण भास्कर मैं तेरी उज्ज्वल  प्रभा हूं,
तूं विस्तृत नभ में आच्छादित मैं तेरी प्रतिछाया हूं‌।

ओ घटा के मेघ शयामल मैं तेरी जल धार हूं,
तूं धरा की प्यास हर, मैं तेरा तृप्त अनुराग हूं ।

ओ सागर अन्तर तल गहरे मैं तेरा विस्तार हूं,
तूं घोर रोर प्रभंजन है, मै तेरा अगाध उत्थान हूं।

ओ मधुबन के हर सिंगार, मै तेरा रंग गुलनार हूं,
तूं मोहनी माया सा है मैं निर्मल बासंती बयार हूं।

             कुसुम कोठारी।