भावों के मोती जब बिखरे
मन की वसुधा हुई सुहागिन
आज मचलती मसी बिखेरे
माणिक मुक्ता नीलम हीरे
नवल दुल्हनिया लक्षणा की
ठुमक रही है धीरे-धीरे
लहरों के आलोडन जैसे
हुई लेखनी भी उन्मागिन।।
जड़ में चेतन भरने वाली
कविता हो ज्यों सुंदर बाला
अलंकार से मण्डित सजनी
स्वर्ण मेखला पहने माला
शब्दों से श्रृंगार सजा कर
निखर उठी है कोई भागिन।
झरने की धारा में बहती
मधुर रागिनी अति मन भावन
सुभगा के तन लिपटी साड़ी
किरणें चमक रही है दावन
वीण स्वरों को सुनकर कोई
नाच रही लहरा कर नागिन।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार 21 जनवरी 2023 को 'प्रतिकार फिर भी कर रही हूँ झूठ के प्रहार का' (चर्चा अंक 4636) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
मन के उठते भाव को भाकूबी आप शबों का जामा पहनाती हैं ...
ReplyDeleteलाजवाब भावपूर्ण रचना ...