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Thursday 28 May 2020

एकलव्य की मनोव्यथा

एकलव्य की मनो व्यथा >

तुम मेरे द्रोणाचार्य थे,
मैं तुम्हारा एकलव्य ‌
मैं तो मौन गुप्त साधना में था ,
तुम्हें कुछ पता भी न था ।
फिर इतनी बङी दक्षिणा
क्यों मांग बैठे ,
सिर्फ अर्जुन का प्यार और
अपने वचन की चिंता थी ?
या अभिमान था तुम्हारा,
सोचा भी नही कि सर्वस्व
दे के जी भी पाऊंगा ?
इससे अच्छा प्राण
मांगे होते सहर्ष दे देता
और जीवित भी रहता ‌।
फिर मांगो गुरुदक्षिणा
मैं दूंगा पर ,सोच लेना
अपनी मर्यादा फिर न भुलाना,
वर्ना धरा डोल जायेगी ‌
मैं फिर भेट करूंगा अंगूठाअपना,
और कह दूंगा सारे जग को
तुम मेरे आचार्य नही,
सिर्फ द्रोण हो सिर्फ एक दर्प,
 पर मैं आज भी हूं
तुम्हारा एकलव्य ।

      कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'।

21 comments:

  1. ऐतिहासिकता के गर्भ से निकली,
    बहुत सार्थक रचना।

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    1. बहुत सा आभार आदरणीय।

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  2. बहुत सुंदर सारगर्भित रचना दीदी

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    1. बहुत सा सरनेम आभार बहना।

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  3. सादर नमस्कार,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (29-05-2020) को
    "घिर रहा तम आज दीपक रागिनी जगा लूं" (चर्चा अंक-3716)
    पर भी होगी। आप भी
    सादर आमंत्रित है ।

    "मीना भारद्वाज"


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    1. बहुत बहुत आभार आपका मीना जी चर्चा मंच पर रचना का आना सम्मान का विषय है सदैव, मैं उपस्थित रहूंगी।
      सस्नेह आभार।

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  4. आप सभी का सादर आभार।
    मैंने भी जब से पाठयपुस्तकों में ये पढ़ा तभी से
    एक प्रश्न चिन्ह सा था अंतर मन में और किसी समय में रचना लिख दी आज पोस्ट करने पर एक तथ्य सामने आया है मैं साझा करना चाहूंगी।

    द्रोणाचार्य ने कभी अंगूठा माँगा ही नहीं है। जब एकलव्य की धनुर्विद्या उन्होंने देखी तब उन्होंने कहा गुरूदक्षिणा स्वरुप मुझे बस इतना ही दो कि जब कौरव पांडव युद्ध होगा तब तुम किसी भी पक्ष से युद्ध न करना।

    तब एकलव्य ने कहा कि *ऐसा माँगकर तो जैसे आपने मेरा अंगूठा ही काट लिया*

    इस आलंकारिक भाषा को गलत रूप दे दिया गया और ये मिथक ही चलता रहा।

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  5. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सखी

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    1. बहुत बहुत आभार सखी।

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  6. बहुत सुंदर

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  7. वाह!लाजवाब सृजन आदरणीय दीदी.
    मासूमियत से अंतस में उठे नाज़ुक प्रश्न... वाह!
    तुम मेरे द्रोणाचार्य थे,
    मैं तुम्हारा एकलव्य ‌.. आँखें नम करती प्रत्येक पंग्ति.
    अमर सृजन दी.

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    1. बहुत सा स्नेह आभार बहना ,रचना का मर्म छू गया तो रचना धन्य हुई।
      सस्नेह।

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  8. कुसुम दी, आपने जिस मिथक की बात की हैं वो तो मुझे आज पता चली। अब सत्य क्या हैं ये तो ईश्वर ही जाने।

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    1. ज्योति बहन किसी भी तथ्य की प्रामाणिकता का दावा करना अमावस्या में चांद खोजने जैसा है,हमारा इतिहास भी समय समय पर आकाओं के इशारों पर बदला गया और पढ़ाया गया सच की आवाज नक्कार खाने में तूती बजाने जैसा है हमारे मानस तक बस जो पैठ गया वो सत्य बाकी सब झूठ हालात तो ये है।
      सच और झूठ का मैं कोई दावा नहीं कर सकता सौ सालों से जो पढ़ ये आएं हैं उसे नकारना इतना सरल नहीं हैं ।
      इस पर सखी श्वेता पोस्ट मुझे प्रभावित कर गयी है।
      👇

      "जी दी,
      आपने बहुत अच्छा वैचारिकी मंथन प्रस्तुत किया है।
      जी दी, महाभारत पौराणिक ग्रंथ में उद्धरित प्रसंगों को मूल स्वरूप से कुछ शब्दांश द्वारा परिवर्तित करके प्रसंग में निहित भावों की व्याख्या कर सकते हैं परंतु प्रचलित मान्यताओं के विपरीत तथ्य स्वीकारना लोग नहीं चाहेंगे।
      सच तो यह भी है कि महाभारत में के करीब संस्कृत के लाख़ श्लोकों में से 8800 कूट श्लोकों का अनुवाद करना किसी भी प्रकांड विद्वान के लिए भी संभव न हो सका है। कठिन श्लोकों की व्याख्या और अनुवाद सभी अपनी बुद्धि अनुरूप करते रहे हैं यही कारण है जो प्रचलित कथाएँ है लोग उसी को सच मानते हैं किसी भी नयी कथा को स्वीकारना आसान नहीं।
      सादर क्षमा चाहेंगे अगर लिखने के क्रम में भाव वश कोई घृष्टता कर दी हो हमने।"

      सस्नेह आपका ज्योति बहन।

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  9. एकलव्य की व्यथा का सजीव चित्रण हुआ।

    बहुत ही खूब ... 💐💐

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  10. ज्ञान पर भारी अहंकार... और अहंकार के भीतर छुपा डर क‍िसी साधारण से उकलव्य से क‍ितना भयभीत हो जाता है और ...सिर्फ द्रोण हो सिर्फ एक दर्प,
    पर मैं आज भी हूं
    तुम्हारा एकलव्य... अपने जैसे क‍ितने एकलव्यों में सदैव के ल‍िए अनंतकालीन ज‍िजीव‍िषा प‍िरो जाता है... बहुत खूब ल‍िखा कुसुम जी ... द्रोणों को धराशायी करते एकलव्यों की गाथा

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  11. जी बहुत बहुत आभार आपका।
    आपकी टिप्पणी ने रचना को प्रवाह दिया।
    सादर।

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  12. विचारणीय प्रश्न इतिहास की देन जो सदैव आत्मा को झकझोरता रहेगा सुन्दर प्रस्तुति

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