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Wednesday, 9 September 2020

यादों का पपीहा

 यादों का पपीहा 


शज़र-ए-हयात की शाख़ पर 

कुछ स्याह कुछ संगमरमरी 

यादों का पपीहा। 


खट्टे मीठे फल चखता गीत सुनाता 

उड़-उड़ इधर-उधर फुदकता 

यादों का पपीहा। 


आसमान के सात रंग पंखों में भरता 

सुनहरी सूरज हाथों में थामता 

यादों का पपीहा


चाँद से करता गुफ़्तगू बैठ खिडकी पर 

नींद के बहाने बैठता बंद पलकों पर

यादों का पपीहा।


टुटी किसी डोर को फिर से जोड़ता 

समय की फिसलन पर रपटता 

यादों का पपीहा।


जीवन राह पर छोड़ता कदमों के निशां

निड़र हो उड़ जाता थामने कहकशाँ 

यादों का पपीहा।


              कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'




अंधेेेरी रात में झील का सौंदर्य


घुप अंधेरी रातों दिखता

काला सा सरसी पानी।

तट पर प्रकाशित कुमकुमें लो

बनी आज देखो दानी‌।


समीर के मद्धिम बहाव में

झिलमिलाता नीर चंचल।

जैसे लहरा बंजारन का 

तारों जड़ा नील अंचल।

अधीर अनंत उतरा क्षिति पर

छुप गया है इंद्र मानी।


हिरण्य झुमका हेमांगी का

मंजुल शुभ रत्न जड़ा है।

रात रूपसी रूप देखकर

जड़ होके समय खड़ा है।

है  निसर्ग सौंदर्य बांटता

ज्ञान बांटता ज्यों ज्ञानी।।


दिशा सुंदरी चुप चुप लगती 

मौन झरोखे बैठी है‌ ।

गहन तमशा है शरवरी भी

मुंह मरोड़े ऐंठी है। 

जीवन वापिका में मचलता 

तम अचेत सा अभिमानी।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Saturday, 5 September 2020

वीर उद्यमी

 वीर उद्यमी


उद्यमी सदा निज प्रयत्न से

जय विजय पताका हाथ धरे

पर्वत का सीना चीर वीर

सुरतरंगिणी भू गोद झरे ।।


कौन रोक पाया मारुत को

अपने ही दम पर बहता है 

नही मेघ में क्षमता ऐसी 

सूरज कहाँ छुपा रहता है 

अलबेलों की शान आन का

डंका अंबर तक रोर भरे ।।


तुंग अंगुली धारण करले

शीला खंड वहन कर लाये

तोड़ा आसमान का सीना 

चाँद भूमि को छूकर आये

बाँध उर्मियाँ फिर सागर की 

नलनील सेतु निर्माण करे ।।


लोह पुरुष हुंकार लगाये 

वसुधा थर्रा उठती सारी

टंकार एक जो चाप लगी 

सदृश हुवे दो दो अवतारी

महिमा किसकी लिखे लेखनी

सहस्त्रों वीर क्षिति पर उतरे ।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'


Tuesday, 1 September 2020

पथ के दावेदार नहीं हम

 पथ के दावेदार नहीं हम 

राही हैं हम एक राह के 

रह गुजर का साथ सभी का

लक्ष्य सभी का एक कहाँ है 

चलना है जब साथ समय कुछ

क्यों ना हंसी खुशी से चल दें

कुछ सुन लें, कुछ कह दें, 

अपनी भूली बिसरी यादें 

इन राहों से कितने गुजरे

डगर वही पर राह नयी हैं।।


पथ के दावेदार नही हम..

      कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


Monday, 24 August 2020

प्रारब्ध

 प्रारब्ध


चंचल चाँद रजत का पलना 

 मंदाकिनी गोद में सोता ।


राह निहारे एक चकोरी  

कब अवसान दिवस का होगा

बस देखना प्रारब्ध ही था

सदा विरह उसने है भोगा

पलक पटल पर घूम रहा है

एक स्वप्न आधा नित रोता।।


विधना के हैं खेल निराले 

कोई इनको कब जान सका

जल में डोले शफरी प्यासी 

सुज्ञानी  ही पहचान सका

है भेद कर्म गति के अद्भुत 

वही काटता जो है बोता।।


सागर से आता जल लेकर 

बादल फिरता मारा मारा‌

लेकिन पानी रोक न पाता

चोट झेलता है बेचारा

प्रहार खाकर मेघ बरसता 

बार बार खाली वो होता।‌


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'


रात सदा रात होती है

 रात सदा रात होती है।


रोशनी होना ही तो दिन नही है

रात सदा रात होती है,

चाहे चंद्रमा अपने शबाब पर हो 

प्रकाश की अनुपस्थिति अँधेरा है,

पर प्रकाश होना भर ही रात का अंत नही होता ।

निशा का गमन सूरज के आगमन से होता है ।

कृत्रिम रोशनी या चाँद का प्रकाश 

अँधेरे दूर  करते हैं रात नही।


             कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 17 August 2020

समय औचक कोड़ा

 समय औचक कोड़ा


गूंज स्वरों की मौन हुई जब

पाहन हुवा धड़कता तन।

मानस से उद्गार गये तो

चमन बना ज्यों उजड़ा वन।


नित नव सरगम रचता अंतस

हर इक सुर महका महका।

हिया सांरगी मौन हुई तो

गीत बने बहका बहका।

कैसे कोई तान छेड़ दे

फूट रहा हो जब क्रन्दन।।


मन की धुनकी धुनके थम थम

तान तार में सुर अटका।

टूट गया जो घिसते घिसते

बुझता अंगारा चटका।

कौन करेगा बातें कल की

आज अभी कर लो वंदन।।


समय दासता करता किसकी

औचक ही कोड़ा लगता। 

सिर ताने चलने वाला भी

ओधे मुंह गिरा करता।

मौका रहते साज साध लें

गीत महकते बन उपवन।।


कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"