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Friday 17 August 2018

पहली परिचित मां

जब आंख खोली सब अजनबी थे
न था कोई परिचित ,सभी तो अजनबी थे
पहले पहल एक अद्भुत हल्की
महक लगी परिचित
मां की महक
अंजान हाथ जब छूते
तन को लिये स्नेह अपार
एक डर एक सिहरन
और गले से निकलती
छोटी छोटी सिसकियां
ढूंढती फिर परिचित हाथ
और ज्यों ही जननी के
हाथ उठा लेते कम्पित
अशक्त नाजुक देह
फिर एक आंतरिक सुरक्षा के भाव
और निरबोध वो काया
फिर हुलसत जाती
लिये अधरों पे एक स्मित रेख।

        कुसुम कोठारी

8 comments:

  1. वाह बहुत सुंदर रचना कुसुम जी
    वो माँ ही है
    जो परिचय कराती
    इस जग से
    हमारे रिश्तों से

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  2. अंश मात का हुल्से जब माँ का स्पर्श पा जाये
    पहचानी सी गंध उसे भयभीत नहीं कर पाये ....
    बेहतरीन मीता

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    1. बहुत सुंदर मीता रचना को आधार देती सुंदर पंक्तियाँ

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  3. अति सुंदर।
    एक माँ ही हैं जो हमे सबकुछ देती और सिखाती हैं।
    भावपूर्ण रचना

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २० अगस्त २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  5. सादर आभार जी आना तो निश्चित है देर सबेर आती जरूर हूं।
    सस्नेह ।

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  6. माँ की महक, उसका स्पर्श ही है जो बालन तो बाल्लक बड़े के मन में भी सुरक्षा का ... प्रेम का स्त्रोत बहा देता है ...
    माँ सा कौन ...

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  7. जी सुंदर कथन सार्थक सटीक।
    सादर आभार।

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